Saturday 13 August 2011

एक गाँव के दायरे से कुछ सांस्कृतिक चिंताएँ

जहाँ की धूल, मिट्टी, पानी और आबोहवा में खेलते-धूपते बड़ा हुआ वहाँ आज खुद को मैं अजनबी की तरह भौंचक्क और असहाय पाता हूँ। समझ में ही नहीं आता कि चालीस साल पहले मिथिलांचल के जिस कोसी क्षेत्र में मेरा जन्म हुआ था वह दो-ढाई दशक में इतना अपरिचित क्यों और कैसे हो गया!...बदलाव प्रकृति का नियम है और उसकी एक सातत्य प्रक्रिया होती है, लेकिन वहाँ जो बदलाव दिख रहा है वह प्रकृति विरुद्ध तो है ही, उसकी प्रक्रिया भी इतनी अराजक, दिशाहीन और विस्मयकारी है कि आसानी से बयान नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं कि पहले यह क्षेत्र खूब धन्य-धान्य या स्वर्ग था! अहा, ग्राम्य जीवन क्या है जैसी कोई बात कभी नहीं थी!...तब भी यहाँ भयंकर 'दरिद्रा' बास करती थी। नरक से भी नारकीय स्थितियाँ थीं। गाँव क्या, निकट आसपास भी न कोई स्कूल था न अस्पताल। पक्की सड़क या बिजली के बारे में तो हमने दस-बारह साल की उम्र तक कुछ सुना भी नहीं था। गाँव के आगे-पीछे नदियाँ थीं जिनमें काफी दूर तक कोई पुल नहीं था। हर तरफ जंगल था, अंतहीन सा। कहीं-कहीं बाँस, इक्के-दुक्के फलदार पेड़—ज़्यादातर खैर, साहुड़, बबूल जैसे पेड़ों के झुरमुट साँप, सनगोह, बिच्छू, नेवले, गीदड़ से भरा। परती पलार झौआ-कास-पटेर के झाड़ों से आबाद। उपजाऊ ज़मीन नाम मात्र थी। गाँव-भर का हाल तब यह था कि साल-भर में डेढ़ सौ से ज़्यादा दिन चावल-गेहूँ (यानी भात-रोटी) नसीब नहीं होता था। साल के दो सौ से ज़्यादा दिन लोग उबले अल्हुए (शकरकंदी), उबली हुई खेसाड़ी-कुरथी और बाजरे-जनेर या कौन-चीन-जौ जैसे अनाज के सहारे काटते थे। मछली, खरगोश, कछुआ, बनमुर्गी, बटेर, लालसर, पड़ौकी जैसे जीवों के मांस तो लोग खाते थे, मगर उन्हें बनाने के लिए तेल-मसाले के लाले पड़ते थे। जीरा गिनकर और तेल बूँद के हिसाब से खर्च करने का चलन था। पूरे गाँव में एक सेट से ज़्यादा कपड़े तब नव विवाहिताओं को छोड़ प्राय: किसी के पास नहीं होते थे। बर्तनों का हाल यह था कि एक-दो से ज़्यादा मेहमान आने पर लोग पड़ोस के आँगन से थालियाँ माँगकर लाते थे। बीमारों का इलाज पथ्य-परहेज के अलावा घरेलू ढंग के उपचारों से ही होता था। झोलाछाप डॉक्टर भी तब आज के जितने सुलभ नहीं थे। थे तो झाड़-फूँक और टोटके थे। फुर्सत के इफरात क्षण थे और थी गप्पबाज़ी। हँसी तब सिर्फ होंठों से नहीं भीतर से खिलखिलाकर छलकती थी। 

तब व्रत-उपवास दिन काटने के लिए अन्न बचाने का तरीका लगता था। ईश्वर का नाम तब संकट के दिन गुज़ारने जैसी स्थिति में बल देने वाली अदृश्य शक्ति से ज़्यादा महत्त्व नहीं रखता था। पर्व-त्योहार तो थे, मगर ढकोसले और अंधविश्वास ज़रा कम ही थे। धर्म और ईश्वर को लेकर लडऩे-भिडऩे की स्थिति तो बिल्कुल ही नहीं थी। ईश्वर और धर्म की दुकान तब अपने गाँव की सीमान से दूर तक नहीं दिखती थी। एक ग्रामदेवता का थान (स्थान) शीशम के झुरमुट में ज़रूर था, मगर वहाँ भी साल में सिर्फ एक बार लोग जुटते थे। घंटे-भर के कीर्तन के बाद हरेक घर से भेजे गए एक-एक मुट्ठी चावल, कुछ केले और एकाध किलो दूध से बनी साझी खीर का प्रसाद लेकर सभी राज़ी-खुशी अपने घर लौटते थे। सामूहिकता की भावना संबंधों को आधार देती थी। कुटुम्बों का सत्कार और सम्मान एक घर मात्र का नहीं, गाँव-भर का फ़र्ज़ था। किसी एक की उपलब्धि का सुख गाँव-भर को सुख पहुँचाता था।...

मगर आज अपने उसी गाँव में मैं खुद को भौचक्क, असहाय और अजनबी महसूस कर रहा हूँ। उसी गाँव में जहाँ मैंने अपनी ज़िन्दगी के आधे से अधिक दिन गुज़ारे हैं। जहाँ वर्षों तक गाय-भैंस चराया। जहाँ से खेती-बाड़ी करते, मछलियाँ पकड़ते स्कूल का रास्ता तलाशा। जहाँ से चलकर बाहरी दुनिया से नाता जोड़ा।  उसी गाँव में मैं एकाकी हूँ जहाँ की धूल, मिट्टी, पानी और हवा मेरी रग-रग में बसी है और जिनके बिना मेरा अनुभव-संसार शून्य है।...

आज मैं अपने उसी कालिकापुर गाँव में बाहरी व्यक्ति हूँ।...

जनपद के बाहर सर्वप्रथम अठारह वर्ष की उम्र में 1987 में प्रवास पर निकला था। भागलपुर, पटना, सरहसा, दरभंगा, मधुबनी और गाँव...यानी 1995 तक ज़्यादातर वक्त बिहार की सीमा के भीतर ही अध्ययन और अन्य संघर्षों में गुज़रा।... सो कहा जा सकता है कि 1995 तक गाँव से जुड़ाव हर स्तर पर ज़्यादा था। यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि बदलाव की बयार उसी दौर में शुरू हो गई थी जब प्राय: देश के और-और गाँव भी बदलने की ओर अग्रसर हुआ होगा। इंदिरा जी के काल में 20 सूत्री कार्यक्रमों के माध्यम से गाँव में सरकारी धन ने 'लूट और फूट' की एक नींव रखी थी। राजीव युग तक और-और सब्सिडी स्कीमों ने इस व्याधि को चारों तरफ फैलाया। 
उसी दौर में बिहार में तथाकथित संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने की एक सरकारी योजना के तहत मेरे गाँव में भी मेरे पितामह के नाम से एक संस्कृत मध्य विद्यालय खुला। पिछले सत्ताइस-अट्ïठाइस वर्षों में उस विद्यालय ने साक्षर तो एक व्यक्ति को भी नहीं किया, लेकिन उस स्कूल से अन्य गाँवों के पाँच जनों के साथ ही एक ग्रामीण भी 'मास्टर साहेब' कहलाने लगे। जो और लोग 'मास्टर साहेब' नहीं बन पाए उनके साथ स्थानीय स्तर से कोर्ट-कचहरी तक जंग चली। और इन जंगों और कई अन्य बदलावों का प्रभाव कह सकते हैं कि आज वहाँ घर-घर में जंग छिड़ी है।

जंगलों की कटाई-सफाई 1982-83 के बीच शुरू हुई और 1986-87 तक पूरा इलाका लगभग उजाड़ हो गया था। 1990-91 तक आते-आते तो लगभग ऐसी विरानी फैल गई थी कि पहले के भौगोलिक परिवेश की कल्पना तक अविश्वसनीय लगने लगी थी। यह अभियान दरअसल खेती योग्य ज़मीन तैयार करने जैसे किसानों के नेक इरादे से जुड़ा था। उन किसानों को यह पता नहीं था कि खेती इस कदर बेमानी हो जाएगी, जैसी कि हुई। सरकार की कोसी सिंचाई परियोजना बिल्कुल असफल साबित हुई। उसके बाद सरकारी स्तर पर किसानों को सुविधा, सहायता देने या जागरूक बनाने को लेकर कोई ईमानदार कोशिश ही नहीं हुई। गाँव के हृदय पर मृत अजगर की तरह वह नहर आज भी लेटी हुई है जिसमें पानी कभी आया ही नहीं।

उस मरी हुई नहर और मरे हुए-से स्कूल (जहाँ मास्टर साहेब लोग कभी-कभार बैठकर खैनी खाते और गप्प हाँकते हैं) के अलावा उस गाँव के भीतर पिछली सदी में सरकारी योजनाओं से और कुछ दिखने लायक हुआ ही नहीं। हाँ, जब खेती लगातार घाटे का सौदा ही बनती गई तो लोगों ने बाहर ताक-झाँक करना शुरू कर दिया। पहले यहाँ सूचना का स्रोत रेडिया मात्र था। फिर बाहर से लौटे लोगों का अनुभव भी नई-नई बातें गाँव की हवा में फैलाने लगा। फिर बैट्री पर चलनेवाला टीवी भी गाँव की सीमा में प्रवेश कर गया। जिसके साथ-साथ फैलते गए पलायन और बाज़ार के वायरस!...1995 के बाद से मैं दिल्ली-गाजि़याबाद रह रहा हूँ। लेकिन साल में एक-दो बार कुछ दिनों के लिए वहाँ जाता ही रहा। कुछ दफा तो लगभग एक महीना भी रहा। फिर भी धीरे-धीरे हर बार कुछ ज़्यादा ही बेगानगी बढ़ती गई और आज स्थिति ऐसी हो गई कि उसका बयान करना मुश्किल लग रहा है।इस बीच पढ़े-लिखे लोग ही नहीं, अनपढ़-अशिक्षित श्रमिकजनों के साथ-साथ ऐसे तथाकथित कुलिन-मालिकान लोग भी जो गाँव में मज़दूरी नहीं करते, नगर-महानगर की तरफ झुण्डों में निकल चले हैं। मैंने 1987 में मैट्रिकुलेशन किया था। 23 साल हुए हैं। तब से आज तक गाँव की जनसंख्या दोगुनी से ज़्यादा हो गई है। सरकारी वेबसाइट भी चार सौ के लगभग जनसंख्या वाले उस गाँव की ताज़ा जनसंख्या साढ़े ग्यारह सौ बता रहा है। इस बीच आठ-दस लड़कों ने मैट्रिकुलेशन और एकाध ने ग्रेजुएशन किया है—मगर तब एक प्रतिशत लोग बाहर कमाते थे, आज पचास प्रतिशत बाहर कमा रहे हैं। आज गाँव में असहाय वृद्ध, महिलाओं और बच्चों को छोड़ कामकाजी के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। अब कहीं की सूचनाएँ जितनी देर में दिल्ली-कोलकाता पहुँचती हैं, उतनी ही देर में कालिकापुर भी। अब वहाँ पैसे भी पहले की अपेक्षा काफी ज़्यादा पहुँच रहे हैं। लगभग हरेक घर के एक या उससे ज़्यादा सदस्यों का किसी न किसी बैंक में एकाउण्ट है। लगभग  तीस प्रतिशत घरों की महिलाओं के नाम से भी बैंक में एकाउण्ट है। मोबाइल हर घर में। साइकिलों को कौन पूछे, कुछ मोटर गाडिय़ाँ भी हैं। तब एक भी पक्का मकान नहीं था पूरे गाँव में, आज कई पक्के मकान हैं। सीडी, डीवीडी प्लेयर के हरेक तरह के संस्करण अपना मार्ग उधर बना रहा है। गुटखा-पाउच से कोकाकोला तक अब यहाँ सहज ही 'ठंडा गरम' का परोसा बन रहा है। अब हर घर में रोज़ चावल या गेहूँ पकता है। अल्हुआ-मक्के-मड़ुआ या खेसाड़ी-कुर्थी धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। अब मछली और मांस के साधन पहले जैसे सुलभ नहीं, लेकिन उसकी खपत अलबत्ता कई गुना बढ़ गई है। ढाई सौ रुपए किलो वाले बकरे का मांस और दो सौ रुपए किलो तक बिकने वाली आंध्रा की मछलियाँ वहाँ के हाट-बाज़ारों में जितनी पहुँचतीं, सब खप जाती हैं।

वर्ष 2008 में वहाँ कोसी की भीषण बाढ़ आई थी। कई लोग तबाह और बर्बाद हो गए। कुछ लोग मरे भी। बाढ़ के बाद भीषण सूखाड़ आया। ज़मीन का जलस्रोत काफी नीचे चला गया। गाछ-बाँस सूखते गए, तालाब भर गया या सूख गया। गाँव के पश्चिम से गुज़रनेवाली सदानीरा नदी मिरचैया भी सूख गई।

फिर भी कुछ ऐसे अभागे जिनके पास बाहर कमाने लायक 'पूत'  नहीं, उनको छोड़ बाकी परिवार के ऊपर इस बाढ़ का प्रभाव कम ही मिलेगा। एकाध तो इस बाढ़ से इतने मालोमाल हुए हैं कि वे हर साल ऐसी आपदा आने की कामना कर सकते हैं। औसत और बहुतायत आमजन यदि इस आपदा से प्रभावित होकर भी अप्रभावित जैसे रह गए हैं, तो इसकी वजह है गाँव से बाहर काम करनेवाले उनके पारिवारिक जन। बात साफ है, प्रवास की कमाई पर चल रहा है यह गाँव। यही कारण है कि वहाँ घर-घर बैंक एकाउण्ट है ताकि प्रवासी पैसे का प्रवाह सहज हो सके और सरकारी योजनाओं के ड्राफ्ट भुनाने में दिक्कत न आए। लगभग एक दशक से तो इन्दिरा आवास योजना, जवाहर रोजगार योजना, आपदा राहत योजना आदि के पैसों का वैधानिक-अवैधानिक प्रवाह भी जारी रहा है।...

निश्चय ही आप सोच रहे होंगे कि जब गाँव इतना खुशहाल हो गया है, तो मैं क्यों दुखी हो रहा हूँ, अपनी बेगानगी को लेकर? सबकी खुशहाली देख, मैं क्यों खुश नहीं हो रहा हूँ? हमारे ग्रामीणजन तो मुझे 'दुष्ट प्रवृत्ति का आदमी' भी समझने लगेंगे!...

बहरहाल, मैं पूर्ववत दुखी हूँ और भौचक्क! विकास की इस अंधी और दिशाहीन दौड़ ने गाँव को पैसा ज़रूर दिया और उन पैसों से वे टीवी के विज्ञापन में दिखनेवाले अनेक उत्पाद भी खरीदने की स्थिति में आ गए हैं। लेकिन उनके खेत फिर से बंजर हो गए हैं या होते जा रहे हैं। अब वे अपने खेत की साग-सब्ज़ी कम और बाज़ार की सब्जि़याँ ज़्यादा खाते हैं। इलाज के लिए कई झोलाछाप डाक्टर भी आ गए हैं जानलेवा दवाइयों के साथ...। टोने-टोटके और अंधविश्वास भी पहले से ज़्यादा गहरे हुए हैं। ईश्वर के कई-कई ब्राण्डों की नई-नई दुकानें तो बढ़ीं ही, धार्मिक आयोजनों के बहाने शक्ति-प्रदर्शन भी बढ़े हैं। धर्म और जात-पात के बीच जितने मेल-मिलाप बढ़े, उससे ज़्यादा धर्म और जाति की राजनीति के समीकरण ने नए-नए अन्तर्कलह को जन्म दिए हैं। स्त्री शिक्षा पूर्ववत गौण रहे। मगर नारी उत्पीडऩ और दहेज चरम पर हैं। विवाहों में आडंबर और बर्बादी शहरी ढंग से ही अराजक रूप ले चला है।...

आँगन-दलान के बाड़े पर झिंगुनी के बेलों में पीले-पीले फूल आज भी मनोहारी लगते हैं। हरे-भरे पेड़, आम्र मंजरियों की मतवाली गंध और कोयल की कूक अभी पूरी तरह गायब नहीं हुई है। मेड़ों-एकपेडिय़ों से गुज़रते नीम-पाकड़ के नीचे सुस्ताते, नदी-नाले को जाते ग्रामीण जनों के खून का रंग पहले जैसा ही है। ऐसी ढेर सारी बातें पहले जैसी होने के बावजूद आज के ग्रामीण जनों के भीतर एक चालाक किस्म के शहरी की सम्पूर्ण धूर्तता-मक्कारी, लोभ-लालच, दाँव-पेंच के साथ ही गुड़ई के समस्त हथियार और औजार साधने का साहस अदभुत ढंग से विकसित हुआ है। अपनापे और भाईचारे की स्थिति यह है कि अब पड़ोसी के कुटुम्ब का अपमान लोगों को अदभुत सुख पहुँचाता है। अब बात-बेबात लाठी-भाले नहीं, कट्टे या कैमिकल हथियार का उपयोग किया जाता है। मुकदमे से बेहतर रास्ता आर्थिक नुकसान या सामाजिक प्रतिष्ठा हनन का अभियान लगता है।

यही कारण है कि आज हमारे गाँव के लोगों को जो लड़ाई लडऩी चाहिए, उसके लिए वे आगे नहीं आते। फलत: उनकी आर्थिक समृद्धि और बौद्धिक दरिद्रता दोनों साथ-साथ बढ़ रही हैं। जवाहर रोज़गार योजना के नाम पर हर साल कुछ खरंजा सड़कें और कुछ पुल बनते हैं और जल्दी ही ईंटें गायब हो जाती हैं। इसलिए आज तक यहाँ एक फूट भी पक्की सड़क नहीं बनी, न एक भी ढंग के पुल। बिजली भी नहीं आ पाई। हाँ, अब सायंकाल साझे जेनरेटरों की लाइट सप्लाई का नया फंडा ज़रूर आ गया है। इससे लोगों के मोबाइल चार्ज हो जाते हैं और बैट्री भी। सस्ता मनोरंजन, क्षणिक उत्तेजना मिलती रहे! न बने अस्पताल, न चले स्कूल! सड़क-स्कूल के बिना भी सुख का पुल बन ही रहा है।

ऐसे विषय काल में अपने ही गाँव में, मैं अजनबी की हैसियत में पहुँच चुका हूँ और अब उधर को जाने का मन नहीं कर रहा है, तो किसी को क्या फर्क पडऩेवाला है। पहले हर साल जाता था, अब दो-तीन साल पर एकाध रोज़ के लिए जाने पर भी कोई-न-कोई किसी-न-किसी बहाने अपमानित करने को तत्पर दिखता है। अब तो मेरे सगे भी मुझे अपनी ज़मीन से बेदखल करने को आगे आ गए हैं!...

दोस्तो, मैंने जिस गाँव की बात यहाँ रखी है उसकी सीमा से आपका जुड़ाव-लगाव भले न हो...मगर गौर करें कि उन बातों और विचारों का संबंध कहीं-न-कहीं आपके जुड़ाव-लगाव वाले गाँव से भी तो नहीं बनता है?...

  (यह डायरीनुमा टिप्पणी 14 जनवरी, 2011 को लिखी गई थी और 22 जनवरी, 2011 को कोलकाता के एक सम्मान-कार्यक्रम में वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत की गई थी. फिर इसका कुछ अंश ''अमर उजाला'' में आया था और अभी-अभी ''वागर्थ'' के अगस्त अंक में ''छूट गए गाँव से एक पुकार'' शीर्षक से पाठकों को उपलब्ध है.)

2 comments:

  1. गौरीनाथ की इन स्मृतियों से गुजरते हुए मन जैसे एक उदासी के भंवर में डूबता-उतराता रहा जिसे व्याख्यायित कर पाना अभी संभव नही लग रहा|भौतिकता की अंधी दौड़ और तथाकथित विकास ने जो सब से बड़ा मोल गांवों से लिया है वह है-गांव और गांववालों की निश्छल-सहजता|धुर्तता,मक्कारी,शातिरपने आदि-आदि का जो खतरनाक,नकारात्मक और आक्रामक रुप आज गांवों मे दिख रहा है,वह तो शहरों मे भी दुर्लभ है|हम इनका खामियाजा यहां रहकर भोग रहे हैं,जिसे दूर दिल्ली में रहकर गौरीनाथ शब्द दे रहे हैं|गौरीनाथ के लिये एक उदास बधाई !!!

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  2. ऐसे विषय काल में अपने ही गाँव में, मैं अजनबी की हैसियत में पहुँच चुका हूँ और अब उधर को जाने का मन नहीं कर रहा है, तो किसी को क्या फर्क पडऩेवाला है। पहले हर साल जाता था, अब दो-तीन साल पर एकाध रोज़ के लिए जाने पर भी कोई-न-कोई किसी-न-किसी बहाने अपमानित करने को तत्पर दिखता है। अब तो मेरे सगे भी मुझे अपनी ज़मीन से बेदखल करने को आगे आ गए हैं!...
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    आप अकेले ही नहीं, यह बदलाव सभी महसूस कर रहे हैं। गाँव भले खुशहाल नज़र आ रहा हो मगर खेत ही नहीं रहेंगे तो भूख का क्या होगा। और खेती के लायक बडी बडी ज़मीनों को हथियाने का षडयंत्र लगातार, नोयेडा का उदाहरण सामने है और किसान भी तैयार, अगर मोटी कीमत मिले तो अपनी पीढी तो निकल ही जायेगी। बाद से क्या लेना देना।

    बहरहाल, आलेख गम्भीर है।

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