Tuesday 23 August 2011

एक चरवाहे का सफरनामा : तीन

      
दरअसल तब तक उसने उससे बेहतर जिन्दगी की तस्वीर भी नहीं देखी थी, स्वाद चखने-जानने या लालायित होने की बात ही दूर! घर में अगर किसी चीज की दिक्कत होती, तो भी बाहर कहीं जाहिर न करने की ताकीद उसे संस्कार की तरह घुट्टी में पिलाई गयी थी। तब रूखा-सूखा जो भी मिलता, कठिन श्रम के बाद खाने का मजा ही कुछ और होता था। फिर चरवाही के भी अपने आनन्द थे। रच-रच के खूबसूरत लाठी, बाँसुरी, घिरनी बनाते कबड्डी-चिक्का, गिल्ली-डंडा, कंचा-कौड़ी, सतघरिया-नौघरिया खेलने की सर्वोत्तम जगह मिरचैया पलार ही थी। गेहूँ-मकई की बालियाँ, मटर-खेसारी की फलियाँ लूटकर 'ओरहेपकाने और कच्चे आम चुराकर 'भुजबीबनाने से लेकर घसवाहिनों के संग आग में मछलियाँ पकाने तक के न जाने कितने निष्कलुष उमंगों-शरारतों के लिए सबसे मुफीद संसार वही था।

            अगर कभी किसी कारण गाय-भैंस की चरवाही से उसको छुट्टी मिल जाती, तो घर-आँगन और टोले में भी कम मन नहीं लगता था। कई भाभियों का सबसे छोटा देवर था वह। पिता छह भाई थे, जिनमें से उसके तीन चाचा के घर-परिवार मिरचैया के पश्चिम गोविन्दपुर में थे। कालिकापुर में उसके पिता के साथ बाकी दो चाचा के घर-परिवार थे। फिर अन्यान्य कुल-मूल के लोगों के घर!...कलमबाग में लड़के-लड़कियों की कई मंडलियाँ जमतीं। नुक्काचोरी से दूल्हा-दुल्हिन की ब्याह-शादी तक, गीत-संगीत के साथ अनेक तरह के खेलों की जो शृंखला थी वह अद्भुत आनन्द-लोक की तरह याद आती है। वास्तविक जीवन का ही बाल-अभिनय होता था वहाँ। खाने-पकाने, व्रत-त्योहार, झगड़े-उलाहने, राग-विराग, हाट-बाजार, पुलिस-कचहरी, चोर-सिपाही, मन्त्री-राजा के स्वाँग करने में माहिर बच्चे की उस खेल-दुनिया का एक अदाकार बबन भी था।...

            क्षणांश में ही उड़कर मैं डेढ़ हजार किलोमीटर दूर बबन के गाँव पहुँच जाता हूँ। कालिकापुर! मिरचैया पलार!

            सामने वही कलमबाग है! लड़के-लड़कियाँ भी वही!

            बबन ही आज दूल्हा बना है और आशा दीप जला रही है, कोहबर में शरमाती धूल-धुसरित दुल्हिन! मंगल-गीत गाये जा रहे हैं हर रस्म के साथ। दूल्हा-दुल्हिन घर जाते हैं। दुल्हिन रूठती है कि वह सीसफूल लेगी। दूल्हा मनाते हुए कहता है कि अभी अँगूठी लो, इस बार पटसन और मकई-मूँग कुछ नहीं सुतरे! अगहन में धान कटेगा, सिंहेश्वर मेला में सीसफूल भी खरीद दूँगा! फिर दुल्हिन व्रत-त्योहार पर अरवा अन्न, फल और साड़ी माँगती है। दूल्हा लाकर देने का अभिनय करता है। दोनों खाना बनाते और खाते हैं। खाकर साथ-सोने के अभिनय में फुसफुसाकर बात करने और जोर से बोलनेवाले को डाँटने का खेल!...

            दृश्य में परिवर्तन होता है! नुक्काचोरी खेलते हुए उसके होठ पर आशा चूकर गिरती है जूड़-शीतल के पानी की तरह, गिरे घर के पुराने दीवालों की आड़ में! उसको बेर देती, उसके हाथ से अल्हुए और गुड़-बगिए झपट लेती है दुल्हिन, 'मैं तो तेरी घरवाली हूँ न!नजरों के सामने आदिम बिम्ब प्रतिबिम्बित होते हैं चाँदनी के कतरों की तरह। सुनाई देती है, दो कच्ची आत्माओं की नि:शब्द 'शुभ हो! शुभ हो!की कामना और छाती की धड़धड़ी परम पवित्र!...

            सरोवर में खेलते चकवा-चकवी उड़ते हैं। आम्र मंजरियों की तेज महक आ रही है।

            फिर दुर्गन्ध का तेज भभका! कोई लाश सड़ रही है शायद! लाल-लाल फल लदते अनार का वह पेड़ जवानी में ही जो कट गया!...

            मेरा ध्यान टूट जाता है, लेकिन स्क्रीन पर अटके अन्तिम चित्र में गलबहियाँ डाले चम्पा और बबूल से दूर एक पत्रहीन आँवला के पेड़ को नि:शब्द रोते देखता हूँ।

            मुझे लगता है, मेरी कहानियों का बीज इसी पेड़ के आसपास से होकर आया है।...



*****
एक छतरी खुलती है बार-बार! एक बस उड़ाए लिये जा रही है! जटाजूट मुँड़ाया जा रहा है! एक तालाब में कटे बाल बहाए जा रहे हैं। 'हर-हर महादेव!का उद्घोष हो रहा है धरहरा के शिव-मन्दिर में!

            यह बबन की पहली स्मृति है!...

            दूसरी स्मृति है, खुद के ही सिर से टप-टप गिरता खून! तीसरी स्मृति है, भैंस के पीठ पर सवारी। चौथी स्मृति है, दर्जनभर लड़के-लड़कियों के संग नंग-धड़ंग सात-सात घंटे अथाह पानी में मिरचैया-स्नान। पाँचवीं स्मृति है, अक्सर लगनेवाले थप्पड़ों की। इसके आगे तो स्मृतियों की अनन्त शृंखला ही है।...

            इस महानगर दिल्ली में बबन से जब भी मुलाकात हुई किसी-न-किसी स्मृति या रंगों-गन्धों के साथ ही। वैसे बबन से यहाँ मुलाकात कभी-कभार ही हो पाती है और वह भी सिर्फ दिल्ली परिवहन निगम की बसों में। हाँ, खिड़की की तरफ मिल जाये सीट, दिमाग के कम्प्यूटर में न लगी हो कोई दूसरी सीडी-फ्लॉपी और जेब में अधिक रुपये भी न हों, तभी स्मृतियों-अनुभवों की साझेदारी ढंग से हो पाती है! वरना रंगों का एक टुकड़ा या गन्धों का एक फाहाभर!...

            कभी बड़ी दूर किसी नदी में कोई नाव हिचकोले खाती नजर आती है, कभी असंख्य नाग और पनचिडय़ा डुबकी लगाती। कभी किसी जंगल में लगती आग और चारों तरफ उड़ती चिडिय़ों की चीख सुनाई देती। कभी दुपहर को खैरबन्ने में रोती पंडौकी और रात में किकियाती कुतिया।

            कभी नये धान का चूड़ा कूटते समय जैसी महक याद आती, कभी मछली तलने की खुशबू से मन-प्राण में ताजगी की लहर दौड़ जाती। कभी किसी और महीने के मौसम की गन्ध धूप-हवा के साथ आती, तो कभी रातरानी मदहोश करती। लेकिन दु:ख के हर क्षण में अलग-अलग खेत और नदी की मिट्टी-पानी की महक तमाम भिन्नताओं के बावजूद एक जैसी लगती, जैसे अलग-अलग स्त्रियाँ पसीने के गुणधर्म की भिन्नता के बावजूद माँ के रूप में एक जैसी महकती हैं। प्रिया रूप में भी एक जैसी ही!...

            जिनको गन्धों की पहचान नहीं, वही बाजार जाते हैं। हजार शीशियाँ खरीदकर भी वे एक गन्ध नहीं चुन पाते जिससे मानुस जीवन सार्थक हो!

            रंगों की माया भी अपरम्पार! आरक्त होठ, तोते की खुली चोंच, अड़हूल के फूल और बूँद-बूँद टपकते खून एक ही क्रम में याद आते हैं। जैसे धान के पत्ते, दूब और हरे दुपट्टे! जैसे भादो के बादल, नयनों के काजल और घुँघराले केश! जैसे गेहूँ की पकी बालियाँ, मिरचैया की रेत और सोने का कँगन!...इनमें से कोई श्वेत-श्याम नहीं! अब न समझनेवाले को कौन समझा सकता कि बाल काला नहीं होता है।

            रंगों और गन्धों के बीच नफरत की एक नदी अलग से बहाई गयी है। यही है आग का दरिया!... किनारे पर कुछ सौदागर बैठे हैं। कोई बन्दूक सटा रहा है सीने पर! कोई दबा रहा है गला किसी का!...एक लाश से तेज भभका आ रहा है।...भारत-भाग्य विधाता को जश्नों से ही फुर्सत नहीं!...धरती के मालिक अट्टहास कर रहे हैं।...

            दिल्ली परिवहन निगम की बस में तेज ब्रेक लगता है। एक कोने से आवाज आती है, 'साला बिहारी!बबन की बाँह फड़कती है। मैं रोकता हूँ, तो वह नाराज होकर चला जाता है।

            मेरी कहानियों में कहीं-कहीं आक्रोश से भरा एक युवक मिला होगा आपको! सच कहता हूँ, वह बबन का ही रूप है।

            नौ वर्ष की उम्र में स्कूल की डगर पकडऩा, तो बबन के लिए महज एक घटना थी। अक्सर कभी उससे बड़ा भाई (किशोर) छुट्टी करता या वह, क्योंकि एक साथ दोनों के स्कूल चले जाने से गाय-भैंस दोनों सँभालना मुश्किल हो जाता था। लेकिन अचानक उसका मन स्कूल में रम क्या गया, वह मुँहजोर और जिद्दी बन गया। बड़े भाइयों के थप्पड़ खाकर भी वह कुछ ज्यादा ही स्कूल जाने लगा था। उस थप्पड़ की गूँज अब भी याद है उसको।

            स्थितियाँ अगर ऐसी न बनतीं, तो हरगिज नंगे पाँव और फटे-पुराने कपड़े में बबन लगातार स्कूल नहीं जाता रहता!...चौथी कक्षा में एक बार तो इस कारण ऐसी विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ा कि कभी भुलाया नहीं जा सकता। उसका डोरीवाला पैंट चूतड़ पर जरा फटा था। जैसे-तैसे अंग छुपाते वह पीछे की पंक्ति में बैठ गया। संकोच और मुश्किलों के बावजूद दो बार 'पाँच मिनटभी गया। आखिरी घंटी में हेडमास्टर हीराबाबू ने आते ही, नियमित आगे बैठने के कारण, उसको बोरा लेकर आगे आने को कहा। अब तो लगा, वह शर्म से गड़ जाएगा। बड़े भाई पर गुस्सा और खुद पर ग्लानि!... लेकिन हीराबाबू के रौद्र-रूप को देखकर उसे तत्काल आगे बढऩा पड़ा। पढ़ाई पूरी हुई और छुट्टी की घंटी बजी। वह जरा रुककर सबसे पीछे कमरे से निकल रहा था। दरवाजे के बाहर अभी दूसरा पैर रखा ही था कि वहाँ छुपकर खड़ी कक्षा की एक स्मार्ट लड़की ने उसके फटे में हाथ डाल दिया। लड़के के सिर से पैर तक एक तेज लहर दौड़ गयी। मानो पक्षाघात हो गया था!...इसके बाद भी अरसे तक वह लड़की उसके पीछे पड़ी रही, मगर वह सामना करने का साहस कभी जुटा नहीं पाया। प्राय: यहीं से कोई हीनग्रन्थि और एक प्रकार का डर उसके भीतर बैठ गया था जिस कारण बाद में भी वह खुद को ढकने की चिन्ता में लगा हर सम्भ्रान्त-कुलीन और तथाकथित खूबसूरत लड़कियों से दूर-दूर छिटका रहता था। खासकर 'उन जैसियोंका एकान्त-साथ तो उसको दहशत से भर देता था।

            पाँचवीं तक स्थिति लगभग एक जैसी रही। छठी कक्षा में कुछ स्कॉलरशिप वगैरह मिलने की सम्भावना देख पढ़ाई के लिए समय मिलने में थोड़ी-थोड़ी बढ़ोतरी होती गयी। तभी चरवाहे के रूप में बरहमदेव नामक एक लड़के को रखा गया, बाद में जिसके छोटे भाई धरमदेव-करमदेव भी कुछ-कुछ समय के लिए आये। उनकी सेवा याद है। लेकिन चौदह पार कर गया था वह और कटाई-गोराई, कमौनी-निकौनी के साथ ही बाजार के लिए बिकवाली ढोने से लेकर भाव-बट्टा तक में पारंगत हो गया था, सो दायित्व भी बढ़ गया।

            इसी तरह घर-गृहस्थी के असंख्य कामों के बीच उसने आठवीं पास की। पहली दफा शहर दर्शन हुआ, नौवीं कक्षा में चकला-निर्मली सुपौल के तिलकधारी कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लेने पर। पायजामा, शर्ट, तौलिया, चादर, रजाई, मच्छरदानी आदि हर कपड़े नये-नये! ऑयल-लैम्प और ग्लास-प्लेट भी! मेस के मासिक-बिल के अलावा दस से पन्द्रह रुपये पॉकेट खर्च मिलते। तब 'शहर का गौरवकहलानेवाला गंगा टॉकिज शुरू ही हुआ था। टिकट-रेट शायद सत्तर पैसे से एक रुपया नब्बे पैसे तक था। महीने में एक या दो फिल्म जरूर देख लेता था वह। पढ़ाई के लिए भरपूर समय मिलने लगा, साफ-सुथरा रहने की तमीज के साथ तेल-साबुन की सुविधा मिली और क्रिकेट, बॉलीबाल, फुटबाल, बैडमिंटन जैसे खेल से सीधा जुड़ाव हुआ। कई पत्रिकाएँ और अखबार पढऩे की ललक जगी!...हाँ, सुरेश प्रसाद यादव की मेस-कंडकट्री भी याद है! महीने में छह किलो दाल प्रति छात्र लेते थे और खाने में छह दाल भी नहीं मिलती थी। सड़े-गले आलू के साथ बाजारभर में सबसे सस्ता मिलनेवाली थोड़ी हरी सब्जी और ज्यादा पानी का घोल भी थोड़ा-थोड़ा मिलता था। तभी तो एक बार सबके साथ खाने का बहिष्कार किया था। लेकिन मामला 'भारतीयढंग से ही सुधरा, फिर बेतलवा वही डाल! तभी प्रीफेक्ट चुनाव, छात्र-राजनीति की पीठिका बनी थी। एक तरह से उसकी दुनिया बदल गयी थी!

            लेकिन बबन को सुपौल में एक साल भी पूरा नहीं हुआ कि भाइयों में बँटवारा हो गया!...अब बबन पढ़ाई करे या खेती?...

            इस द्वन्द्व में वह उलझा ही था कि एक और दुर्घटना हो गयी। दशहरे की छुट्टी में वह गाँव आ रहा था। अपने स्टेशन पर नाश्ता-पानी कर रेलवे लाइन के किनारे से निकला ही था कि पड़ोस के गाँव के एक सामन्त घराने के लोगों ने अचानक उसके सीने पर बन्दूक तान दिया। यह तो काफी बाद में पता चला कि उस सामन्त घर की एक लड़की, जो उस लड़के के साथ मिडिल स्कूल में पढ़ चुकी थी, को किसी ने कोई प्यार-व्यारवाली चिट्ठी लिख दी थी जो पकड़ा गयी। यह तो नहीं कह सकता कि किस आधार पर, मगर मान लिया गया कि चिट्ठी बबन ने लिखी होगी। फिर क्या था, लड़की के बाप-भाई को जैसे ही किसी के माध्यम से उसके आने की खबर मिली, रास्ते में ही घेर लिया।...

            खैर, उसकी जान तो बच गयी! मगर उस घटना के बाद उसकी हजार से ज्यादा रातें सीने पर तनी बन्दूक के साये में दु:स्वप्नों की भेंट चढ़ गयीं। पन्द्रह-बीस वर्ष से जो मैं अनिद्रा का मरीज हूँ, कदाचित इसके पीछे उस घटना का भी हाथ हो। दरअसल, उस घटना के बाद भी उस तक धमकियाँ आ रही थीं। उसी बीच एक नयी घटना हो गयी। उस बन्दूकवाले यानी लड़की के पिता ने दिनदहाड़े अपने एक हलवाले को मार दिया। उनका बाल-बाँका नहीं हुआ। पुलिस-दल घंटों विनम्र आग्रह करके बिना गिरफ्तार किये लौट गया।

            कानून-व्यवस्था के प्रति बबन के भीतर विश्वास था ही कम, अब तो बचा-खुचा भी खत्म हो गया! हर जगह विपक्ष में खड़ा होते-होते व्यवस्था और प्रभुवर्ग के प्रति नफरत बढ़ती गयी। एक सीमा के बाद आप कह सकते हैं कि वह उग्र सोच के करीब चला गया था, लेकिन वैसा सम्पर्क-संगठन या साहचर्य नहीं मिला उसको।

            ऐसे समय में भाइयों के बीच हुए उस बँटवारे से भी उसको अफसोस नहीं हुआ। उसने अपने हिस्से के पशुओं को बेदर्दी से बेचना शुरू किया। गाँव और सम्पत्ति का अर्थ उसके लिए बदल गया था।

            इस बीच अजीब तरह से उसमें एक परिवर्तन आया। वह गाँव के पढ़े-लिखे व सम्भ्रान्त लोगों से कटकर रहने लगा। बचे समय को महाभारत और हिन्दी उपन्यास के अलावा संस्कृत साहित्य के अध्ययन में लगाने लगा। यह अध्ययन इस कदर बढ़ गया कि जो भी पढ़ा-लिखा साथी या अन्य व्यक्ति मिलता, अक्सर कह देता, ''कवि-साहित्यकार बनबें रौ?’’ और अचानक उसके मन में कौतूहल-सा पैदा हुआ कि आखिर कवि-साहित्यकार कौन बनता है?...क्यों बनता है?...कैसे बनता है?...मगर बतानेवाला कोई नहीं था। इसके उलट उसके इंजीनियर बनने की सम्भावना को लेकर आश्वस्त लोगों की कतार थी। ये दो पाटन थे जहाँ वह पिस रहा था।

            लेकिन इंटरमीडिएट में भागलपुर जाने तक उसकी तात्कालिक प्राथमिकता निश्चित हो गयी थी। यह दीगर बात है कि प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे रचनाकार के उपन्यासों के अलावा प्रेमचन्द के विविध-प्रसंग भाग : एक-दो और मानसरोवर के सभी खण्ड पढऩे का अवसर उसे भागलपुर में ही मिला। काफी संख्या में फिल्में भी उसने वहीं देखीं। संघी सोचवाले से उसका विरोध भी वहीं शुरू हुआ। मगर गम्भीर छात्र गणित, भौतिकी और रसायनशास्त्र का ही रहा। भाषा वाला पेपर और अध्ययन माध्यम अँग्रेजी। लक्ष्य अलग ही था!

            इंटरमीडिएट की परीक्षा तक जैसे-तैसे सब कुछ सही-सलामत ही गुजरा। आगे इंजीनियरिंग की तैयारी के प्रसंग में कोचिंग लेने के लिए वह दिल्ली गया। लेकिन दूसरे महीने ही खर्चे का ऐसा संकट आया कि उसे तत्काल लौटना पड़ा।

            भाई ने असमर्थता जाहिर करते अपना रोना रोया। भाभी ने उसके पढ़ाई-खर्च उठाते-उठाते कंगाल हो जाने की घोषणा में यह भी जोड़ा कि आगे वह बबन के कफन के नाम पर भी घर से चवन्नी नहीं जाने देगी।

            मगर कुछेक चवन्नी कुछ माह और मिलीं! चूँकि इस बीच की तैयारी से, मित्रों और रिश्तेदारों की अभिलाषाओं से बबन के भीतर भी इंजीनियर बनने की इच्छा बहुत आगे बढ़ गयी थी। सो वह हर हाल में अपनी तैयारी जारी रखना चाहता था। कुछ माह पटना रहकर उसने न्यूनतम खर्च की पूर्ति के लिए अनेक तरह से अभ्यर्थना की। मगर वे कुछ माह तीन-चार से आगे नहीं जा सके। खर्च मिलना बिलकुल ही बन्द हो गया।

            अभिलाषाओं के पंख जलाकर वह शीघ्र गाँव लौट आया। मगर जले पर लगाने लायक मरहम गाँव में नदारद था। भाँग का सेवन करते घाव पर जरा-सी पपड़ी जमी, तो दोस्तों ने हौसला दी, ''क्या देखता है! मर जा साले!’’ तब बबन ने गाँजे भरकर चिल्लम सुलगाते मेरी तरफ बढ़ाकर कहा, ''ले गौरीनाथ, उठा चिल्लम! मैं इस आग में समा रहा हूँ। मुझे जलाकर मुक्ति दे और कौटुम्बिक अभिलाषा, आकांक्षा सबसे दूर तुम अपनी रुचि और आवारगी के साथ निकल जा अपने मनचाहे सफर पर!...’’

            और मैं, गौरीनाथ, बबन का दाह-संस्कार तत्काल कर मिरचैया के पास गया। मगर वह तो कुँआरी विधवा की तरह रो रही थी! जहाँ-तहाँ भटकते खूब रात को घर लौट भूखे सो गया। पूरबैया के झोंके में खुले किबाड़ के पल्ले टकराते रहे रातभर। गाँजे-भाँग के असर के बावजूद आँखें खुलती रहीं रातभर। अगली सुबह कांधे पर झोला टाँगकर निकल गया अनजान पथ पर। मगर दु:खद बात कि बबन उस चिता पर जलकर भी पूरी तरह मर नहीं पाया। उसका प्रेत गाँव के सिवान पर आज भी दिख जाता है जब-तब।

            मैं, गौरीनाथ, बबन की 'हमआत्मा’, उसका डुप्लिकेट उसी दिन उस गाँव से बेदखल हो गया। मेरा कोई घरबार नहीं रहा वहाँ, कोई अभिभावक नहीं। हर लीक को छोड़, एक आजाद परिन्दा की तरह उड़ चला दुनिया-जहान की खाक छानने। 
(जारी....)

1 comment:

  1. Thanks for giving us chance to know the birth of writer..thoroughly enjoying and hoping same fervor in upcoming sequel..!Atul

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