Wednesday 17 August 2011

एक चरवाहे का सफरनामा : एक



धान के झुके शीशों से सूरज की पहली किरण के साथ टपकती हैं ओस की बूँदें। गेहूँ के शिशु किलकारी के सन्देशे देते अपनी जड़भर पृथ्वी को गीला करते हैं। खेसारी के गद्दे हरी-भरी कुँवारी दूबों के नर्म-नर्म दल से भी ज्यादा लचक के साथ इतरा रहे हैं। सरसों के फूलों में होती है हलचल। मिरचैया के कलकल पानी में छलछल करती है रेवा और बाँध कूद खड्ड में गिरी गरैई मछली कीचड़ में लिथड़ी तड़प रही है। एक बगुला उड़ता है कऽक्-कऽक् करते। किसी गरुड़ के पेट से होकर बार-बार निकल आता है साँप। कहीं लाश पर गिरता है गिद्ध। कहीं से प्रभाती और भजन की मद्धिम धुन सुनाई पड़ रही है। हलवाहे लगे हैं अपनी फिक्र में और बथानों से आने लगी है गाय-भैंस दुहने की आवाज!...
            मैं तेजी से सिर झटकता हूँ, लेकिन दृश्यों का सिलसिला टूटता ही नहीं!...उस धरती-आकाश से इस कदर नाभिनालबद्ध रहा कि थोड़ा मेरा आत्म-अंश वहाँ छूट गया है, थोड़ा वहाँ का वातावरण-अंश मुझमें खुबा चला आया है!...अक्सर धान-खेत बीच की झोपड़ी के एकान्त में मैं पुआल की गर्मी जो महसूस कर रहा होता हूँ, वह अकारण तो नहीं?
            सदाबहार-से जंगल के बीच से एक गाँव कौंधता है! विशुद्ध किसान-मजदूरों का फुसघरों-झोपड़पट्टियोंवाला गाँव। कालिकापुर! परगना : हरावत। जिला : सहरसा (अब सुपौल)। दो तरफ लक्ष्मीनियाँ, दक्षिण : डोडऱा, पश्चिम : गोविन्दपुर। आगे गेडऱा, पीछे मिरचैया। खैरबन्ने से दूर, बाँसवन के समीप, कलमबाग से लगी बस्ती। अगवाड़े-पिछवाड़े निबटाती स्त्रीगण गोभी गाछ में पानी डालती, राख फेंकती, चूल्हे-चौके सँभालती हैं। पुरुषजन सँभालते हैं खेत-बथान। तभी दस-बारह साल का एक लड़का आँखें मलते जगता है और गाय-भैंस दुहाने के छोटे-बड़े बरतनों के साथ खुद से बड़ी लाठी लेकर चलता है मिरचैया पलार। अपने बथान।
            नदी, जंगल और रेत के साथ हिलता-मिलता है वह। दूध चला जाता बिकने बाजार। पशुओं को खोलकर वह लड़का बेर के ऊपर से जलेबी के नीचे पहुँच अमरूद कुतरता है।...
            सींकिया कद के उस लड़के का गोरापन धूल-मिट्टी और गन्दे कपड़े में छुप गया है। पैरों में बिवाई और घुटने तक जमी मैल की मोटी परत! ज्यादा आग तपने के चलते जंघे तक उभर आये हैं लाल-लाल चकत्ते (स्थानीय भाषा में जिसे आगितप्पा कहते)। मगर इन सबसे निस्पृह वह लड़का साथी चरवाहे की राह तकते, अपने प्रिय पशु की गरदन सोहराते, उसके जू-अठगोड़बे निकालने में लीन है!...वह पशु भी अपनी रूखड़ी जिह्वा से उसके बाँह-कन्धे और बालों को चाट रहा है!...
            सूर्य ऊपर चढ़ता है और देखते-देखते अल्हुआ-मुड़ही खाते कई चरवाहे अपने-अपने पशुओं के साथ आ जाते हैं। जमने लगती है मंडली। अबूझ-सी उदासी छँटती है। खेल-कूद, शोर-शराबा और शरारतों का दौर शुरू होता है कि उस लड़के के घर से कोई आ जाता है। लड़का समझ जाता कि अब नौ बज गया और वह साहुड़, नीम या चिरचिरी का दातुन करते सरपट भागता है।
            कुल्लाकर वह सिर पर से दो बाल्टी पानी डालता है। न देह मलने की जरूरत, न देह पोंछने का ज्ञान! आईने-कंघी का भी प्रयोजन नहीं पड़ता है। वही गन्दा इकलौता डोरीवाला पैंट और घर में रखी एकमात्र शर्ट। जैसे-तैसे भाप छोड़ता खाना झटपट निगलकर तैयार होता है।
            गाँव के और भी दो-चार बच्चे दो किलोमीटर दूर स्थित लक्ष्मीनियाँ मिडिल स्कूल पढऩे जाते हैं, लेकिन वे सब आगे निकल चुके होते। वह लड़का एक हाथ से बस्ता दबाए, दूसरे से बैठने के लिए तहाकर बोरे थामे अकेले दौड़ पड़ता है।
            उसके स्कूल पहुँचने तक प्रार्थना की लाइन लग गयी होती है। देर के लिए सटाक-सटाक छड़ी बजरती है और शुरू होता है चिल्लाना, 'हे प्रभु आनन्ददाता, ज्ञान मुझको दीजिए!...
            कक्षा लगते ही वह चरवाहा पढ़ुवा छात्र बन जाता है। रहमान साहब पूछते हैं, ''शेरशाह ने प्रजा की भलाई के लिए क्या-क्या किया था?’’ जवाब तो ठीक लेकिन एकाध शब्द इधर का उधर हो जाता है। धड़ाक-धड़ाक छड़ी बजने लगती है। ऐसी दहशत रहमान साहब की कि सब गलती कर जाते हैं। पूरी क्लास पिट जाती है।...टिफिन-ऑवर में घर तो वह दूरी के कारण नहीं आ पाता, लेकिन स्कूल में टिफिन के लिए कुछ ले जाने की जरूरत, दूसरे को खाते देखकर भी, उसने कभी क्यों महसूस नहीं की, यह नहीं बता सकता है वह। बस, चार बजे, छुट्टी की घंटी बजते सीधे घर की तरफ भागता है।
            रास्ते में एक नाला पड़ता है जिसमें सात-आठ महीने पानी होता है। उस नाले के पानी में पश्चिम की तरफ लौटते वक्त सूर्य के ताप से जलते उसके लाल चेहरे की परछाईं पड़ती है। उस परछाईं में वह खुद को पहचान नहीं पाता, मगर परछाईं उसका पीछा नहीं छोड़ती है।
            घर पहुँच बोरा-बस्ता पटक वह दोपहर के बचे-खुचे ठंडे खाने पर टूट पड़ता है। कई बार अगर खाने में चावल की जगह रोटी रही, तो बैठकर खाने का भी मौका नहीं मिलता है। सीधे फरमान जारी रहता कि खाते-खाते ही लाठी लेकर भागो पलारगाय या भैसों के पास! लड़का बहुत विरोध भी दर्ज नहीं कर पाता है। मड़ुआ-मकई या गेहूँ की रोटी नमक-मिरची-अचार के साथ कुतरते काँख में लाठी दबाए चरवाही पर निकल जाता है। दूर कहीं चलती होलर-चक्कीवाली मशीन की पुक्-पुक्-पुक्-पुक् और चिडिय़ों की आवाज समाँ बाँधती है।
            अँधेरा गहराते, आठ बजे के करीब, बथान से निवृत्त होकर वह घर लौटता है। पैर-हाथ धोकर अलाव अगोरता है। गप्पें पीते हीं-हीं, ठीं-ठीं करते रहता है। गप्प-कथा और डींग मारने के मैदान से होकर घर के बुजुर्गों के साथ ही वह खाना खाता है। फिर गपियाते या गीतकथा सुनते जहाँ जगह मिलती वहीं सो जाता है।
            पढऩे-लिखने के लिए समय, किताब-कॉपी या अन्य जरूरी-सुविधा की बाबत मुँह खोलने पर उसके बड़े भाई माधवनाथ एक किस्सा सुनाते हैं!...किस्से में एक बहुत ही दु:खी और गरीब बालक है। वह बालक दिन-भर चाकरी से जुड़े असंख्य कामों में लगा रहता है। उस पर एक किताब-दुकानवाले की दया तो है, मगर रात को भी फुर्सत नहीं। बस, महीने में एक बार किसी तरह उस किताब की दुकान में जाता है और रातभर में कई किताबें पढ़ जाता है। बुद्धि इतनी तेज है उसकी कि जो एक बार पढ़ता, कभी भूलता नहीं। सम्पूर्ण कंठस्थ!...और इसी तरह बी.ए.-एम.ए. कर एक दिन वह घरेलू नौकर से बड़ा हाकिम बन गया!...
            सम्भव है, तब तक वह चरवाहा कालिदास से जुड़ी दन्तकथा भी सुन चुका हो! उसके एक चाचा संस्कृत पंडित थे। गीता, रामायण और महाभारत से वैसे तो सबका जुड़ाव था, लेकिन पिता के साथ गीता, मँझले चाचा के साथ रामायण और छोटे चाचा जो खलीफा भी थे, के साथ महाभारत चिपके-से थे।...लेकिन उस जिद्दी चरवाहे को दो में से किसी भी किस्से पर यकीन नहीं हो पा रहा है। इतना भी नहीं जितना उसे अपने स्वप्न के किसी अज्ञात-अनजान 'जल्लासोट नामक प्रदेश पर यकीन है।
            और वह लड़का नींद में चला गया है जल्लासोट और बाँसुरी बजाते ढूँढ़ रहा है अपनी प्रिया!...
            मैं फिर तेजी से सिर झटकता हूँ। बड़ी मुश्किल से ध्यान जरा भंग होता है। ओह! कहाँ भटक गया था मैं?...
(जारी....)

3 comments:

  1. अगले हिस्से का इंतज़ार है.

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  2. गौरीनाथ की स्मृतियों को पढते हुए वर्तमान से जैसे संपर्क टूट जाता है|जिसे मैं ठेठ गौरीनाथियन गद्य कहता हूँ,उसके वाक्यों,शब्दों के साथ चलता हुआ 20,25,30……………साल पहले के किसी युग में विचरता हुआ अपने अस्तित्व से बेखबर हो जाता हूँ|एपिसोड खतम होता है……………आंख के आगे एक झिलमिलाहट देर तक ठहरी रहती है……जैसे नेटवर्क चले जाने के बाद झिलमिलाता टीवी स्क्रीन्…………फिर चौंकते हुए अपने होने का एहसास वापस लौटता है---अरे!!!

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  3. As always,best of memories appears through the fiction of Gaurinath Ji...hailing myself from village/Mithila,will be like to preserve it forever..Atul

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