Sunday 21 August 2011

एक चरवाहे का सफरनामा : दो


            दोस्तो! मैं पहले ही बता दूँ कि मेरे पास अपना लगभग कुछ नहीं है!यहाँ बताने लायक जो कुछ है, उस चरवाहे की देन है। मिरचैया पलार की जो भी कथा सुना रहा हूँ, वह उसी चरवाहे की अनुभव-स्मृति से....

            सो भाई, मैं ठहरा डुप्लिकेट! फोटोकॉपी!...कितनी भी दूर हो मूलप्रति, मूल आखिर मूल है। स्मृतियाँ अगर धोखेबाज न हों, तो गर्भगृह से मृत्युद्वार तक का रास्ता सदा रोशन नजर आता है।...और नाचीज इस बात पर यकीन रखता है कि आँखें अगर खुली हों और राह-रोशन तो गिरने की आशंका बेकार! आप मुझे दिल्लीवाला कहें (हमारे पटनियाँ मित्र 'दिलिआइटकहना पसन्द करते हैं), दिल्लीवाले (जो खुद 'बाहरीहैं) 'बिहारीही कहेंगे, मैं अपने श्मशान से शोक की खबरों तक का सम्पादन अपनी नजर देख रहा हूँ। इसलिए छुपाऊँ क्या, दिखाऊँ क्या का द्वन्द्व नहीं है, फिलवक्त तक पारदर्शी जीवन जीने में ही अपने को यकीन है।...
          
   वह चरवाहा बबन कहलाता है। उसकी माँ ने छुपाकर चावल बेचा और पचीस-पचीस पैसे के तीन सिक्के दिये, तो गुरुजी ने स्कूल रजिस्टर में दर्ज किया उसके डुप्लिकेट का, यानी मेरा नाम गौरीनाथ (पूँछ के तौर पर 'मिश्रजोड़कर)। मगर गाँववाले आज भी उसको बबन ही पुकारते हैं। बाद में 'अन्तिकासम्पादक के तौर पर अनलकान्त नाम भी अस्तित्व में आया जो मैथिली के लिए ही पेटेंट होकर रह गया।

            बहरहाल बबन के घर-परिवार या दूर-दूर तक के परिचितों में कोई लेखक-पत्रकार या साहित्यिक अभिरुचि का नहीं था। फिर वह अपनी जमीनए!.. तलाशने कहानी की तरफ क्यों और कैसे बढ़ा?...वह गीत है न, 'कौन दु:खें बनलै तू जोगी रे?’...

            ...नदियों का जालवाला उसका इलाका है। खैरबन्ïने का साम्राज्य! बालू की ढूह! 

          उपजाऊ जमीन थी और गड्ढे-नाले-टीले भी। मगर नदियाँ इस कदर अल्हड़ हो जातीं कि नीचे की जमीन पर बाढ़ और ऊँची जमीन पर सुखाड़ एक साथ देखने को मिलते। परिणामत: भाग्य और भगवान के भरोसे जीवन व्यतीत करना यहाँ के लोगों की विवशता रही है। सड़क, बिजली, पुल, स्कूल, अस्पताल जैसी प्राथमिक सुविधाओं से आज तक महरूम है यह गाँव। सिर्फ रेडियो तरंग से फूहड़ मनोरंजन और झूठे समाचार उपलब्ध होते हैं! सूखी नहर, पुलिसिया दमन, कानूनी लालफीताशाही के जरिए आमजन के साथ सरकारी लूट-बलात्कार का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है।

            फिर भी साधारण-जन जी-तोड़ परिश्रम की बदौलत हर तरह की फसलें उगा लेते हैं। सुनहले पटसन से खूब लाल-लाल मिरची तक। मछलियों की भी अच्छी आमद है। वैसे मोटे अनाज के साथ नमक-मिरची पर भी यहाँ सन्तोष दिखता है। नमक-मिरची के साथ दो बूँद तेल, आम का अचार अथवा खेसारी दाल (जिसके खाने से बेरी-बेरी या सूखा-रोग होने की बात कही जाती है) या जंगली साग भी मिल जाये, तो धन्यभाग!

            ताल-मखाना इतने महँगे होते कि यहाँ के किसान-मजदूर उपजाकर भी इस तथाकथित क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचानवाले भोज्य-पदार्थ से जीभ तृप्त नहीं कर पाते। 'तिलकोड़के पकौड़े के लिए भी उसके घर पर्याप्त तेल नहीं होता (बाबा नागार्जुन चाहे जितने गुण गाएँ इसके)! मछली के बाद दूध-दही ही आय का साधन होने के बावजूद कभी-कभार कंठ तक जाता!...

            बबन ने भी अपने घर वही सब देखा था। अन्न के दाने-दाने सोने से ज्यादा मोल का समझा जाता था। खासकर स्त्रियाँ कुछ ज्यादा ही श्रम और निष्ठा से अन्न-संरक्षण यज्ञ में लगी रहतीं। लेकिन बबन के वर्ग में काहिल-निकम्मों की एक जमात हमेशा रही जिसकी आदत में मेहमानी करना और गप्पें मारना खैनी-बीड़ी की तरह शुमार था। वर्चस्व कुलीन धनवानों का था, तो नकल उसकी ही संस्कृति की होगी न! सो पितृभक्त पुत्र, स्वामीभक्त चाकर और पतिव्रता स्त्री के आदर्श-सूत्र के पालन में एक-से-एक वितंडा खड़ा होता रहा। कर्मकांड और अन्धविश्वास कायम रहा!...आखिर जनसाधारण क्या और कैसे करे?...

            बबन ने जब होश सँभाला, तो उसके सामने अबूझ और अस्पष्ट रूप में ये ही सवाल टँगे थे। सम्भव है, पहली बार इसी से उसके भीतर की कथाभूमि नम हुई हो!...
(जारी....)

2 comments:

  1. सो भाई, मैं ठहरा डुप्लिकेट! फोटोकॉपी!...कितनी भी दूर हो मूलप्रति, मूल आखिर मूल है। स्मृतियाँ अगर धोखेबाज न हों, तो गर्भगृह से मृत्युद्वार तक का रास्ता सदा रोशन नजर आता है।...और नाचीज इस बात पर यकीन रखता है कि आँखें अगर खुली हों और राह-रोशन तो गिरने की आशंका बेकार!
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    हम भी इसी बात पे यकीन रखते हैं ।

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  2. Enlightenment is at place...no matter,how modest is protagonist!Words are champion here,so is its narrator..indeed nice reading your rear life-Atul

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