Wednesday 5 October 2011

दास्तान एक बस्ती की जो उजड़ गई..

मेरा घर मिरचैया पलार से पूरब लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर था जो सवर्णों की बस्ती थी और मिसरान कहलाती थी! अगल-बगल झापट्टी, ठकुरपट्टी, यादवटोल आदि जैसी बस्तियां थीं! ये बस्तियां कोसी की अनेक कटान के कारण कई बार उजड़ी-बसी थीं! और उस क्रम में आख़िरी बसाव लगभग 1940-1950  के आसपास हुई थी! लेकिन इन बस्तियों की अपेक्षा कालिकापुर गाँव स्थित मिरचैया पलार के केन्द्र में कलकल-छलछल करती बहती नदी मिरचैया के एकदम किनारे लगी जो बस्ती कुछ समय बाद बसी थी वह कियटटोली कहलाती थी! इसी कियटटोली से लगे घाटों-किनारों पर मुझ जैसे उस वक़्त के पलारजीवी का जीवन चलता था! गाय-भैसों को मिरचैया किनारे छोड़कर खेलते-धुपते जब-तब हम कियटटोली चले जाते थे! नदी के बदले कुंए का पानी पीना हो तो अक्सर हम उधर ही जाते थे! कभी किसी के घर से आये खाने में नमक कम हो जाते तो उन्हीं के घर के नमक से अपनी जिह्वा के  स्वाद को तृप्त कर पाते थे! चने-खेसाड़ी-गेहूं के होरहे या मछली-केकड़े पकाने-बनाने के क्रम में ऐसी कई चीजों की जरूरत पड़ती थी जिसके लिए हम उनके आँगन-घर अपने ही घर की तरह बेधड़क घुस जाते थे! ऐसे अनगिनत काम, ऐसी अनगिनत ज़रूरतें थीं हमारी जो उस बस्ती से पूरी होती थीं!...

     उस बस्ती से हम बच्चे का ही नहीं हमारे वुज़ुर्गों का भी स्वार्थ जुड़ा था! हमारे खेतों में काम करने मजदूर-मजदूरिनें वहीँ से आती थीं, हलवाहे भी वही लोग थे! टेहलुक, चरवाहे, संगी-साथी तो थे ही वहां बतकुटौअल के अड्डे भी जमते थे! कई तरह के खेल की मुफीद जगह और कई तरह के ज्ञान के अनौपचारिक केंद्र होने के साथ बहुत सारी उम्मीदों और हसरतों को वहीं पंख मिले थे!

     मेरे हलवाहे रामसुन्नर कामत हम सब के रामसुन्नर भाय थे! उनकी पत्नी को बेटी लाली के नाम से जोड़ के ललिया माय कहा जाता जबकि हमसब की मुंहलगी भाभी थी वह! हंसी-मजाक और चुहल में तो उसका जवाब नहीं! अश्लील से अश्लील बातें और किस्से वो बेधड़क और निःसंकोच बड़े ही सहज भाव से कहती-सुनाती बड़ों को मनोरंजित करती तो छोटों को परिपक्व-ज्ञानवान-समझदार बनाने के साथ-साथ कामशास्त्र के देसी संस्करण से समृद्ध जवान बनाने में भी मदद करती थी... लेकिन उसके चरित्र को लेकर कभी किसी ने ऊँगली तक नहीं उठाई, ना उसकी इमानदारी को लेकर! वह ऐसी आदर्श श्रमिक महिला थी कि उनकी यश-चर्चा आज भी पलारजीवीयों के बीच सर्वत्र है! उनके बेटे भोला और बेचन जिनको भोलबा-बेचना पुकारा जाता, हमारे संगे-साथी थे! सुना है कि आजकल दोनों गुडगाँव में एक अच्छी कम्पनी में नियमित मजदूर हैं! निश्चित ही कि आज वो बेहतर जीवन जी रहे होंगे और उस मिरचैया पलार को भूले नहीं होंगे, लेकिन यह ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि वो मिरचैया पलार से उस समूची बस्ती कियटटोली के उजड़ जाने को लेकर दुखी भी होंगे या नहीं... 

लेकिन यह एक दुखद सच है कि आज वहां वो कियटटोली बस्ती नहीं है... बिलकुल ही नहीं... एक घर भी नहीं...

1960  के आसपास बसी थी वो बस्ती...  कोसी का छाडन था वो इलाका... उधर से कभी कोसी गुज़र चुकी थी... हम लोगों की बस्ती ही 1950 के आसपास बसी थी, वो कियटटोली उसके करीब दस साल बाद आबाद हुयी थी! पहले सरजूग कामत, नूनूलाल कामत, बुच्ची कामत सपरिवार आये थे, अपने आठ में से पांच भाई को फतेहपुर में छोड़ कर तीन भाई यहाँ ! फिर रामसून्नर कामत आये कुनौली से... उनकी पत्नी ललिया माय फतेहपुर की थी सो वो कुछ ज़मीन दान में पा गयी तो उनके परिवार भी यहीं आ बसे... फिर आये करजाईन से सुबकी कामत अपने बेटे हरिलाल कामत के परिवार के साथ और देखते ही देखते कालिकापुर के मिरचैया पलार पर कियटटोली नामक एक मुकम्मल बस्ती आबाद हो गयी थी...

लेकिन इस बस्ती का अस्तित्व 50 साल भी कायम नहीं रह पाया! मात्र 35-40 वर्ष में उजड़ गयी वो बस्ती... लेकिन इतने ही वर्षों के इसके इतिहास में झांकना और उसकी संक्षिप्त दास्तान बयान करना आज मुझे जरूरी लग रहा है, खास कर तब तो और अधिक जरूरी लग रहा है जब मैं मिरचैया पलार की गाथा लेकर आपके सामने आ रहा हूँ...

दोस्तों, इस बस्ती की सही-सच्ची दास्तान बताने के लायक और सही हक़दार तो उस बस्तीबासी ही हैं... मगर उनके लिए जब हमारी व्यवस्था और सरकार ने कुछ किया-सोचा ही नहीं और उनमें से किसी को साक्षर होने का मौका ही नहीं मिला तो क्या करेंगे? मैं कामना करता हूँ कि उनमें से किसी के बच्चे पढ़-लिख के इस काबिल हो और अपने पुरखे के ज़ुबान से सुन के उस कथा को लिखे... तत्काल उनके संग-साथ से जो जाना उतना कहकर उनके नमक का क़र्ज़ थोड़ा भी अदा करूं तो सही...

मैं जब पांच साल का था तभी से उस बस्ती और बस्तीवासी से गहन लगाव था! रामसुन्नर के परिवार के अलावा नूनूलाल के घर के लोग भी हमारे यहाँ से जुड़े थे! वह 1976 का साल था जब नूनूलाल के बड़े बेटे ब्रह्मदेव ने हमारे यहाँ चरवाही  शुरू की! 1981 के बाद जब वह मेहनत-मजूरी और हलवाही लायक हो गया तो उसकी जगह उसके छोटे भाई धरमदेव ने चाकरी शुरू की! इसी तरह कुछ ही समय बाद उनके सबसे छोटे भाई करमदेव ने काम पकड़ लिया! करमदेव के एक पैर में ज़रा तकलीफ थी जिस कारण उसको लंगड़ा भी कहता था कोई-कोई! जब करमदेव मेरे यहाँ काम करता था तभी कुछ वक़्त गाँव-घर में हलवाही-मजूरी करने के बाद ब्रह्मदेव-धरमदेव ने दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ी थी!

दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ने वाले इन दोनों भाइयों की तरह उस टोले से और भी पांच-सात युवक हुए! उनकी बाहरी कमाई से घर की हालत प्रायः सबकी ज़रा बेहतर हुई थी! और तब जीवन के ढर्रे भी ज़रा बदलाव की तरफ अग्रसर था कि एक घटना हो गयी...

उस साल उस टोले में एक लड़की की शादी हुई थी... उस शादी में पहले की शादियों की अपेक्षा कुछ ज़्यादा मान-सम्मान और अच्छे खान-पान से बारातियों और अतिथियों का स्वागत हुआ था! यूं आज की तुलना में वो कुछ भी ना था, फिर भी लोगों की आँख पे चढ़ गया टोला!फिर उस टोले में पांच-छः लडकियां अचानक से दिखने लायक दहलीज पर पहुँच गयी थी! वो बस्ती थी भी बांकी तमाम बस्तियों से काफी अलग और दूरी पर... कि एक रात कुछ  भले मानुस पहुंचे वहाँ और बोले कि बकरा काटकर मांस-भात खिलाओ... जब तक खाना बना वे गांजा पीते घर-आँगन में ताँक-झाँक करते रहे... खाने के बाद लड़कियों की सेवा जबरन ले ली उन्होंने और चलते-चलते धमकी भी! फिर ऐसा अक्सर होने लगा और एक दफा माल-मत्ता भी साफ़ कर गया...

वे श्रमजीवी थे और श्रम के बल कहीं भी गुजारा कर सकते थे तो फिर यहाँ इज्जत क्यों नीलाम करते? इज्जत उन्हें इस गाँव और धरती से ज़्यादा प्यारी रही होगी... इसलिए इस गांव-धरती का मोह त्याग दिया उन्होंने धीरे-धीरे... पहले खेड़िया और उसकी एक और बहन सहित पूरे परिवार को लेकर सुबकी-हरिलाल गए एक रात अचानक करजाईन की तरफ ... फिर उसी तरह रामसुन्नर भाई भी अपने कुनबे के साथ एक रात निकल गए कुनौली, अपने पुराने ठिकाने की ओर... नूनूलाल मर चुके थे, उनके बच्चे ब्रह्मदेव, धरमदेव, करमदेव, उसकी बहनें और माँ  फतेहपुर ही लौटे मगर उनका कमाई का क्षेत्र है आज भी दिल्ली...

और इसी तरह धीरे-धीरे पूरा कुनबा बिखर गया और वो बस्ती इतिहास में चली गयी...

आज जब मैं अपनी प्रेमिका मिरचैया को याद करता हूँ तो उस क्रम में उस बस्ती के वे सारे लोग मुझे याद आ रहे हैं जिनसे सालों-साल तक हमारा लगाव-जुड़ाव रहा था... उनके संग-साथ की स्मृतियाँ, उनके पर्व-त्यौहार, उनके गीत-प्रीत, उनके घर के आगे-पीछे के पेड़-पौधे-गाछ-बांस, कुंआ से लेकर नहर किनारे की सड़क तक ... सब-के-सब
यूं याद आ रहे जैसे ये सब कल तक थे ही और यहाँ से लौट के गाँव जाउंगा तो यथावत मिलेगा...

खैर वो बस्ती भले ना मिले, उन लोगों से मिले प्रेम-अपनत्व उनके नमक-पसीने के क़र्ज़ के समान हमेशा याद आते रहेंगे और उस सम्बन्ध की उष्मा कभी कम ना होगी...

Tuesday 23 August 2011

एक चरवाहे का सफरनामा : चार

आगे के सफर में मैं अपना कर्ता-कर्म, आपादान-सम्बोधन सबकुछ खुद था।

            कुछ समय आवारगी में गुजरे। फिर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से जुड़े, दुनिया-जहान देखे, कुछ अलग-अलग तरह के लोगों से मुठभेड़ें हुईं। गाँवों, शहरों और लाइब्रेरियों की खाक छानते मैं साहित्य की तरफ झुक रहा था कि मेरा अनन्य मित्र शम्भु साहित्य-रोग दूर करने आ गया। तब हम पटना में थे। शम्भु ने सण्डे मेल में छपे कमलेश्वरजी के 'आधारशीलासीरिज के कुछ संस्मरण दिखाते कहा, ''ले, इसको पढ़! समझ में आ जाएगा कि साहित्य का क्षेत्र कितना खराब और कठिनाइयों से भरा है। ये पढ़ लेगा, तो फिर साहित्य का नाम भी नहीं लेगा!...’’ 

      मगर हुआ उलट। एक कहानी पर पहले से रियाज कर रहा था, एक कहानी और पकने लगी! सारी रात जगता रहा। सुबह होते निर्णय लिया कि अब कुछ और सोचने में वक्त नहीं गँवाना है। इस दुनिया में मुझसे ज्यादा दु:खी लोगों की कमी नहीं है। मेरा दु:ख उनमें अनेक से छोटा है। सो अपनी भूमिका जानना-समझना ही बेहतर होगा।...

            तभी कुछ सहपाठियों के सुझाव पर सहरसा में ट्यूशन से खाने-रहने लायक आमदनी की सम्भावना देख वहाँ गया, तो करीब चार वर्ष वहीं रह गया। भूख से लड़ते वहीं से मैंने ग्रेजुएशन किया और लेखन को भी नियमित। पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की बिक्री सहित कई तरह के काम करने पड़े, मगर सहरसा में मैं टिका तो गणित-ज्ञान की बदौलत प्राप्त ट्यूशनों और विभिन्न तरह की गतिविधियों में सक्रिय मित्रों के घृणा और प्रेम सहते ही।

            बहरहाल, सहरसा रहते मेरा जुड़ाव सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में बढ़ गया। कई धुरन्धर मार्क्सवादी मिले। वहीं एक साक्षरता अभियान से जुड़े संगठन में भी कुछ समय काम करने का मौका मिला। उससे और कुछ मिला हो या नहीं, जन और समाज को सीधे और व्यापक रूप में जाना-समझा। लगातार भटक-भटककर गाँव-गिराँव से जो अनुभव बटोर रहा था, वह मुझे न सिर्फ माँज रहा था, बल्कि परिपक्व भी बना रहा था। फिर तो रफ्ता-रफ्ता अँधेरे में भी राह नजर आने लगी। एक सोच बनने लगा।

            सोच में आये इस बदलाव का असर मेरे व्यवहार और कर्म पर भी पड़ा। निजी जीवन में दिखावे और कर्मकांड से मुक्त था मैं। लेकिन मेरी यह मुक्ति ज्यादातर लोगों को स्वीकार्य नहीं थी।

            साल-दो-साल बीत गये। गुजरे वक्त की हवा-पानी ने कुछ धूल साफ की। गाँवघर से औपचारिक-सा जुड़ाव फिर बना। लेकिन जहर-बुझे कँटीले तारों से हुआ था यह जुड़ाव! उस पर मेरा नया अवतार गाँवभर के लिए असह्य था। फिर जल्दी ही उन्हें गुस्से का इजहार करने के मौके भी मिलते गये। मेरे दो चाचा मरे कुछ ही समय के अन्तर पर। नख-बाल से लेकर जितने भी कर्मकांड हुए, मैं किसी में शरीक नहीं हुआ। फिर मेरी एक चाची मरी। 1 सितम्बर, 1991 को मेरे पिता की मृत्यु हुई। मैंने अपना वही रवैया कायम रखा। इस पर मेरा तीव्र विरोध हुआ और परिवारवाले ने एक तरह से बहिष्कृत कर दिया। फिर एक विधवा से ब्याह करने का अफवाह भी फैला। फिर समान गोत्र में इश्क-लड़ाने की बात-कथा का रस लिया गया। कविता न 'करनेके बावजूद गाँव-जबार में 'कबीतो मैं कहलाता ही था, अचानक पागल भी घोषित कर दिया जाऊँगा इसकी जरा भी कल्पना नहीं थी! मगर सचमुच में वर्षों तक मैं 'पगलबाकहलाया जाता रहा। बाँधकर मुझे काँके (राँची) पहुँचाने की योजना भी बनी।

            मैं अपनी आँखों अपनी लाश श्मशान जाते देखता रहा। जो लड़की कभी दूर खड़ी रहते हुए भी मेरे लिए अपने भीतर प्रेम रखती थी, अनचाहे भ्रूण की तरह उसने अन्तर की सफाई कर ली थी। जिसने कभी ब्याह-प्रस्ताव भेजा था, वापस ले रहा था। जिस विदुषी ने मेरी पहली रचना के प्रकाशन पर मिठाई बाँटी, जिसने घर बसाने का सपना दिखाया था, मुझसे कोई शिकवा-शिकायत किए बगैर किसी और का घर बसाने चली गयी।


***
मैं नदी किनारेवाला भुतहा पीपल की तरह झंझावात सहते खड़ा रहा। लोग अपने-अपने ढंग से आरोप और लाँछन लगाते सदमे पहुँचाते रहे।

            बहरहाल, जैसे भी, मैं साहित्य और पत्रकारिता की तरफ आ गया था और वह भी दिल-दिमाग से होल-टाइमर बनकर।

            मेरा जो यह सहरसा-दरभंगा होते दिल्ली तक का सफर है, आम निम्नमध्यवर्गीय युवाओं जैसा ही है। अन्तर है तो यही कि वहाँ से चलते वक्त मेरी जेब में पैसे डालनेवाला या हौसलाअफजाई करनेवाला गाँव के सिवान तक कोई नहीं मिला।

            एक युग इस दिल्ली की धूल फाँकते भी बीत गया है।...

            यह भी सच है कि इस लायक बनाने में, मेरी जिन्दगी के टुकड़े-टुकड़े को जोड़कर सँवारने का काम ढेर सारे मित्रों के साथ ही नन्दिनी ने किया है। विगत 1994 से मेरी एक-एक साँस की गवाह नन्दिनी ने कठिन श्रम उठाकर, अपार दु:ख झेलकर, मेरे साथ एक घरौंदा सजाया है। कोमल और अमेय अब स्कूल जाते हैं। मेरी माँ मेरे बच्चों को भी कहानी सुना रही हैं। मगर हमारा परिवार 'अन्तिका-बया और अंतिका प्रकाशन के साथियों को मिलाकर भी पूरा नहीं होता।...

            दोस्तो, कभी मैंने अपनी (आत्मपरक) कहानी 'हम कहाँ हैं?’ ('नाच के बाहरसंग्रह में है) के अन्त में लिखा था, ''आप मेरी बेशर्मी पर थूक सकते हैं कि मैंने आत्महत्या न करके कहानी-जीना शुरू कर दिया है।’’ आज अन्दरूनी हालात बहुत बदले नहीं हैं, मगर इस मसरूफीयत में भी मैं कह सकता हूँ कि अब मैं कहानी लिखता हूँ और कभी-कभी दिल खोलकर खूब हँसता भी हूँ।
           


***
कहानियाँ लिखना कठिन और कष्टकर जरूर लगता है, लेकिन यह मेरी जिन्दगी का सबसे प्रिय, सुखद और श्रेष्ठ-कर्म है। एक बेहतर समाज का जो सपना है, न्याय की जो चाहत है, उसके लिए जो हमारी लड़ाई हैउसमें मेरी सहभागिता मुख्य रूप से अपनी रचनाएँ ही तय करेंगी। यह खुद तो नहीं कह सकता कि मेरे लिखे में क्या-कैसा है, पर मेरी कोशिश रहती है कि पसीने से भीगे मेहनतकश आम जनता के दु:ख, दैन्य, संघर्ष और आक्रोश के साथ ही उसके जीवन में जो कुछ सुख और उम्मीदों के क्षण-बिन्दु होते हैंउनको भी उकेरूँ। वर्ग-शत्रु के असली चेहरे भी दिखाऊँ। थोड़ी स्नेह-वात्सल्य की बातें, थोड़े चुहल-व्यंग्य, थोड़े हँसी-ठट्ठे भी हों!...

            लेकिन क्यों लिखता हूँ, यह बात अब भी साफ नहीं हो पा रही है। इसकी पीठिका और आन्तरिक स्थितियाँ जीवन और समाज से ही जुड़ी हैं। कुछ और गहरे अन्त:सूत्र होंगे। लेकिन उसको बयान करने की भाषा-सामर्थ्य मेरे पास नहीं है!...शायद किसी और काम लायक उपयुक्त और सही न होऊँ। लेकिन यह जवाब पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि कई ऐसे काम और भी हैं जिन्हें मैं कर सकता हूँ। खेती-बागवानी से मछली पालन तक का तो अनुभव भी है। गाँव-कस्बे के दैनिक जीवन में लन्द-फन्द के कामों में लगे लोगों के अनेक तरह के कारोबार का ऊँच-नीच भी जानने लगा हूँ। फिर भी कहानियाँ ही लिखता हूँ, तो जाहिर है कि किसी-न-किसी खास मकसद से ही। अब वह मकसद पूरा न हो पा रहा हो, यह दीगर बात है।

            जहाँ तक कथा-प्रेरणा की बात है, तो यह मुझे विरासत में भी कुछ हद तक मिली। माँ से बहुत कुछ सुनता था। 'नाच के बाहरकहानी में जालिम सिंह नाच के गीत माँ के ही कण्ठ से लिये। मेरे बड़े बहनोई अनिरुद्ध झा(श्रीपुर) मशहूर किस्सागो रहे हैं। फिर गाँव में अक्सर किसी-न-किसी बड़े किस्सागो का आना लगा रहता था। छोटे-मोटे किस्सागो हर गाँव में होते हैं। ('दुरंगाके झबरू बाबा की तरह।) 

            मिरचैया के गर्भ में भी किस्से की खान है। भैंस चरानेवाले अग्रज साथी मोती बुढ़वा (मोती यादव) मेरे प्रथम किस्सा-गुरु हैं। आल्हा-ऊदल के सैकड़ों किस्से-प्रसंग उन्हीं से सुने हैं मैंने। लोरिक, सलहेस, कुँवर विजयभान, खानसिंह-मानसिंह, सामा-चकेबा, जट-जटिन के किस्से और गीत भी मोती बुढ़वा ने ही सुनाये थे। मिरचैया नदी और ग्वाले-मछुआरे से दोस्ती न होती, तो अगम पानी में घंटों तैरने या मछलियाँ पकडऩे का शौक-हुनर कहाँ से पाता! जिनके चूल्हे अगोरे रहता उन मल्लाहिनों के प्रेम, पसीने और नमक का कर्ज तो है ही, जाल फेंकने की कला सिखानेवाले मल्लाहों का गुरु-ऋण भी। उन मछुआरिन, ग्वालिन, तमोलिन, कामतिन, सरदारिन माताओं, बहनों, भाभियों से प्रीति न बढ़ती, तो अल्हड़ युवतियों के साफ-शफ्फाफ व्यवहारों से इस कदर कहाँ परिचित हो पाता कि पचीस-तीस वर्ष बीत जाने के बावजूद उनके सम्बन्धों की तपिश कम होती नहीं जान पड़ती है।

            इन तमाम वजहों के साथ छाती पर बन्दूक ताननेवाले के वर्ग के कारनामें भी हमें उकसाते हैं। 'मस्तराम मस्ती में, आग लगे बस्ती मेंजैसा सोच रखकर मैं एक दिन भी चैन से नहीं जी सकता हूँ। फिर कुछ निजी असफलताओं से उपजी कुंठाएँ भी हैं। बढिय़ा बाँसुरी बनाकर भी वादक नहीं बन सका। आभरण-अलंकरण विहीन साधारणजन के चेहरे, उन चेहरों की भाव-भंगिमा और तमाम वे दृश्य जो नजरों को बाँध लेते हैं, उन सबको चित्रित करने की बड़ी अभिलाषा होती है! ढेर सारे ऐसे सवाल हैं जिन पर मैं आमजन के साथ साझा सम्वाद करना चाहता हूँ। लेकिन मैं न संगीतकार हूँ, न चित्रकार हूँ, न प्रवक्ता हूँ, न इंजीनियर और न जाने क्या-क्या नहीं हूँ!...कहानी ही मेरे लिए एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ मैं अपनी तमाम छोटी-बड़ी भूमिकाएँ एक साथ अदा करता हूँ। हाँ, सादगी का औजार मैंने कथा-गुरु अमरकान्त से ही पाया है!...



 ***
दोस्तो, भीतर से लगता है अभी-अभी बचपन की गलियाँ पारकर कैशोर्य-आँगन आया ही हूँ। लेखन भी उसी अवस्था में है। रोज-रोज रियाज और लिखने-सुधारने का अभ्यास भी वही है। मेरे आगे एक-दो और तेज-तर्रार नयी पीढ़ी आ गयी है जिससे गुफ्तगू का मजा ही कुछ और है। कोमल और अमेय के आने से वात्सल-रस का परिपाक भी होने लगा है। मगर मैंने ढंग की दुनियादारी नहीं सीखी। बस, अनवरत लड़ता-झगड़ता चलता रहा। पिछले दिनों जब मौत को एकदम करीब से देखा तो लगा, नहीं, उम्र कोई भी हो, इनसान कभी भी मर सकता है। सो सफर के लिए अपना सामान बाँध के रखना बुरी बात नहीं! ऐसा सोचने के बाद मेरे लिए जिन्दगी की ढेर सारी मुश्किलें आसान हो गयीं। गदह-पचीसी की उम्र पिछली गली में छोड़ आया हूँ, अब तो सचमुच में मैं जवान हो गया हूँ!...

            सो इस जवानी में कहानी बहुत है, मगर कितना कहा जाता है और कितना अनकहा रहता है, यह वक्त बताएगा। मेरी कहानी लेखन-गति धीमी गति के समाचार से भी धीमी है। बीस-बाइस वर्षों में चौबीस-पचीस कहानियाँ!

            बहरहाल, व्यापक हिन्दी समाज का जो स्नेह मुझे मिला है, वह कम नहीं। मेरी सारी रचनाएँ (अपवाद में रियाज काल की कुछ चीजें छोड़कर) समय से छपीं। सम्पादक और पाठक दोनों का भरपूर स्नेह मिला। 'नाच के बाहरकहानी छपने के बाद अनामन्त्रित किसी जगह रचना भेजने की मुझे जरूरत ही नहीं पड़ी। इसके उलट रचनाभाव के चलते कई बार प्रिय सम्पादकों के आदेश का पालन ही नहीं कर पाया। अपने थोड़े से प्रिय सम्पादकों पर मैं पूरा भरोसा रखता हूँ, मुझे यकीन है कि जब भी मैं कुछ गलत लिखूँगा, वह वापस करेंगे। इसी तरह पाठकों से भी मेरा लगाव-जुड़ाव बढ़ता ही रहा है। उनका प्यार मेरा बल है। अपने तमाम प्रशंसकों के प्यार-दुलार का कायल हूँ। दुष्टजनों के आशीर्वचनों का भूखा नहीं हूँ! हथेली पर दही जमाने का धैर्य भी नहीं रखता हूँ! मगर सहमना-समानधर्मा के प्रति भवभूति-सा विश्वास है।

            अब जहाँ तक प्रकाशन-अनुभव की बात है, तो पहली कहानी हो या इक्कीसवीं, फर्क नहीं पड़ता। वैसे सच कहूँ तो प्रकाशन को लेकर मेरी उत्सुकता बहुत कम होती है। सबसे ज्यादा खुशी मुझे रचना पूरी होने के क्षण होती है, बीच का समय 'गैम-पीरियडहै। मैंने न तो कभी किसी कहानी के प्रकाशन पर मिठाई बाँटी, न किसी किताब के प्रकाशन पर, न किसी पुरस्कार पर। हाँ, अन्तरंग मित्रों की बात अलग है, वहाँ तो जेब का भी फर्क नहीं रहता।...बाकी इस रचनात्मक-आनन्द और उद्देश्य के बीच तालमेल बैठाने में मैं खुद को आज भी असमर्थ पाता हूँ।

            बहरहाल, मेरी जिन्दगी आज भी दिहाड़ी मजदूर से बहुत अलग नहीं। भविष्य अनिश्चित है, मगर मैंने पत्थर के नीचे दबी दूब की आजादी और हरियाली देखी है।...

(चार किस्तों में प्रस्तुत यह सफरनामा मेरे एक पुराने आत्मकथ्य के संपादित अंश हैं. पहले एक पत्रिका और फिर मेरे दूसरे कहानी संग्रह 'मानुस' में बकलमखुद के अंतर्गत प्रकाशित हो चुके आलेख का सम्पादित और परिवर्धित अंश यहाँ इस आशय से प्रस्तुत किया है कि मेरे नए पाठकों को मिरचैया पलार की आगामी यात्रा में परेशानी या अपरिचय की स्थिति का सामना ना करना पड़े...)

एक चरवाहे का सफरनामा : तीन

      
दरअसल तब तक उसने उससे बेहतर जिन्दगी की तस्वीर भी नहीं देखी थी, स्वाद चखने-जानने या लालायित होने की बात ही दूर! घर में अगर किसी चीज की दिक्कत होती, तो भी बाहर कहीं जाहिर न करने की ताकीद उसे संस्कार की तरह घुट्टी में पिलाई गयी थी। तब रूखा-सूखा जो भी मिलता, कठिन श्रम के बाद खाने का मजा ही कुछ और होता था। फिर चरवाही के भी अपने आनन्द थे। रच-रच के खूबसूरत लाठी, बाँसुरी, घिरनी बनाते कबड्डी-चिक्का, गिल्ली-डंडा, कंचा-कौड़ी, सतघरिया-नौघरिया खेलने की सर्वोत्तम जगह मिरचैया पलार ही थी। गेहूँ-मकई की बालियाँ, मटर-खेसारी की फलियाँ लूटकर 'ओरहेपकाने और कच्चे आम चुराकर 'भुजबीबनाने से लेकर घसवाहिनों के संग आग में मछलियाँ पकाने तक के न जाने कितने निष्कलुष उमंगों-शरारतों के लिए सबसे मुफीद संसार वही था।

            अगर कभी किसी कारण गाय-भैंस की चरवाही से उसको छुट्टी मिल जाती, तो घर-आँगन और टोले में भी कम मन नहीं लगता था। कई भाभियों का सबसे छोटा देवर था वह। पिता छह भाई थे, जिनमें से उसके तीन चाचा के घर-परिवार मिरचैया के पश्चिम गोविन्दपुर में थे। कालिकापुर में उसके पिता के साथ बाकी दो चाचा के घर-परिवार थे। फिर अन्यान्य कुल-मूल के लोगों के घर!...कलमबाग में लड़के-लड़कियों की कई मंडलियाँ जमतीं। नुक्काचोरी से दूल्हा-दुल्हिन की ब्याह-शादी तक, गीत-संगीत के साथ अनेक तरह के खेलों की जो शृंखला थी वह अद्भुत आनन्द-लोक की तरह याद आती है। वास्तविक जीवन का ही बाल-अभिनय होता था वहाँ। खाने-पकाने, व्रत-त्योहार, झगड़े-उलाहने, राग-विराग, हाट-बाजार, पुलिस-कचहरी, चोर-सिपाही, मन्त्री-राजा के स्वाँग करने में माहिर बच्चे की उस खेल-दुनिया का एक अदाकार बबन भी था।...

            क्षणांश में ही उड़कर मैं डेढ़ हजार किलोमीटर दूर बबन के गाँव पहुँच जाता हूँ। कालिकापुर! मिरचैया पलार!

            सामने वही कलमबाग है! लड़के-लड़कियाँ भी वही!

            बबन ही आज दूल्हा बना है और आशा दीप जला रही है, कोहबर में शरमाती धूल-धुसरित दुल्हिन! मंगल-गीत गाये जा रहे हैं हर रस्म के साथ। दूल्हा-दुल्हिन घर जाते हैं। दुल्हिन रूठती है कि वह सीसफूल लेगी। दूल्हा मनाते हुए कहता है कि अभी अँगूठी लो, इस बार पटसन और मकई-मूँग कुछ नहीं सुतरे! अगहन में धान कटेगा, सिंहेश्वर मेला में सीसफूल भी खरीद दूँगा! फिर दुल्हिन व्रत-त्योहार पर अरवा अन्न, फल और साड़ी माँगती है। दूल्हा लाकर देने का अभिनय करता है। दोनों खाना बनाते और खाते हैं। खाकर साथ-सोने के अभिनय में फुसफुसाकर बात करने और जोर से बोलनेवाले को डाँटने का खेल!...

            दृश्य में परिवर्तन होता है! नुक्काचोरी खेलते हुए उसके होठ पर आशा चूकर गिरती है जूड़-शीतल के पानी की तरह, गिरे घर के पुराने दीवालों की आड़ में! उसको बेर देती, उसके हाथ से अल्हुए और गुड़-बगिए झपट लेती है दुल्हिन, 'मैं तो तेरी घरवाली हूँ न!नजरों के सामने आदिम बिम्ब प्रतिबिम्बित होते हैं चाँदनी के कतरों की तरह। सुनाई देती है, दो कच्ची आत्माओं की नि:शब्द 'शुभ हो! शुभ हो!की कामना और छाती की धड़धड़ी परम पवित्र!...

            सरोवर में खेलते चकवा-चकवी उड़ते हैं। आम्र मंजरियों की तेज महक आ रही है।

            फिर दुर्गन्ध का तेज भभका! कोई लाश सड़ रही है शायद! लाल-लाल फल लदते अनार का वह पेड़ जवानी में ही जो कट गया!...

            मेरा ध्यान टूट जाता है, लेकिन स्क्रीन पर अटके अन्तिम चित्र में गलबहियाँ डाले चम्पा और बबूल से दूर एक पत्रहीन आँवला के पेड़ को नि:शब्द रोते देखता हूँ।

            मुझे लगता है, मेरी कहानियों का बीज इसी पेड़ के आसपास से होकर आया है।...



*****
एक छतरी खुलती है बार-बार! एक बस उड़ाए लिये जा रही है! जटाजूट मुँड़ाया जा रहा है! एक तालाब में कटे बाल बहाए जा रहे हैं। 'हर-हर महादेव!का उद्घोष हो रहा है धरहरा के शिव-मन्दिर में!

            यह बबन की पहली स्मृति है!...

            दूसरी स्मृति है, खुद के ही सिर से टप-टप गिरता खून! तीसरी स्मृति है, भैंस के पीठ पर सवारी। चौथी स्मृति है, दर्जनभर लड़के-लड़कियों के संग नंग-धड़ंग सात-सात घंटे अथाह पानी में मिरचैया-स्नान। पाँचवीं स्मृति है, अक्सर लगनेवाले थप्पड़ों की। इसके आगे तो स्मृतियों की अनन्त शृंखला ही है।...

            इस महानगर दिल्ली में बबन से जब भी मुलाकात हुई किसी-न-किसी स्मृति या रंगों-गन्धों के साथ ही। वैसे बबन से यहाँ मुलाकात कभी-कभार ही हो पाती है और वह भी सिर्फ दिल्ली परिवहन निगम की बसों में। हाँ, खिड़की की तरफ मिल जाये सीट, दिमाग के कम्प्यूटर में न लगी हो कोई दूसरी सीडी-फ्लॉपी और जेब में अधिक रुपये भी न हों, तभी स्मृतियों-अनुभवों की साझेदारी ढंग से हो पाती है! वरना रंगों का एक टुकड़ा या गन्धों का एक फाहाभर!...

            कभी बड़ी दूर किसी नदी में कोई नाव हिचकोले खाती नजर आती है, कभी असंख्य नाग और पनचिडय़ा डुबकी लगाती। कभी किसी जंगल में लगती आग और चारों तरफ उड़ती चिडिय़ों की चीख सुनाई देती। कभी दुपहर को खैरबन्ने में रोती पंडौकी और रात में किकियाती कुतिया।

            कभी नये धान का चूड़ा कूटते समय जैसी महक याद आती, कभी मछली तलने की खुशबू से मन-प्राण में ताजगी की लहर दौड़ जाती। कभी किसी और महीने के मौसम की गन्ध धूप-हवा के साथ आती, तो कभी रातरानी मदहोश करती। लेकिन दु:ख के हर क्षण में अलग-अलग खेत और नदी की मिट्टी-पानी की महक तमाम भिन्नताओं के बावजूद एक जैसी लगती, जैसे अलग-अलग स्त्रियाँ पसीने के गुणधर्म की भिन्नता के बावजूद माँ के रूप में एक जैसी महकती हैं। प्रिया रूप में भी एक जैसी ही!...

            जिनको गन्धों की पहचान नहीं, वही बाजार जाते हैं। हजार शीशियाँ खरीदकर भी वे एक गन्ध नहीं चुन पाते जिससे मानुस जीवन सार्थक हो!

            रंगों की माया भी अपरम्पार! आरक्त होठ, तोते की खुली चोंच, अड़हूल के फूल और बूँद-बूँद टपकते खून एक ही क्रम में याद आते हैं। जैसे धान के पत्ते, दूब और हरे दुपट्टे! जैसे भादो के बादल, नयनों के काजल और घुँघराले केश! जैसे गेहूँ की पकी बालियाँ, मिरचैया की रेत और सोने का कँगन!...इनमें से कोई श्वेत-श्याम नहीं! अब न समझनेवाले को कौन समझा सकता कि बाल काला नहीं होता है।

            रंगों और गन्धों के बीच नफरत की एक नदी अलग से बहाई गयी है। यही है आग का दरिया!... किनारे पर कुछ सौदागर बैठे हैं। कोई बन्दूक सटा रहा है सीने पर! कोई दबा रहा है गला किसी का!...एक लाश से तेज भभका आ रहा है।...भारत-भाग्य विधाता को जश्नों से ही फुर्सत नहीं!...धरती के मालिक अट्टहास कर रहे हैं।...

            दिल्ली परिवहन निगम की बस में तेज ब्रेक लगता है। एक कोने से आवाज आती है, 'साला बिहारी!बबन की बाँह फड़कती है। मैं रोकता हूँ, तो वह नाराज होकर चला जाता है।

            मेरी कहानियों में कहीं-कहीं आक्रोश से भरा एक युवक मिला होगा आपको! सच कहता हूँ, वह बबन का ही रूप है।

            नौ वर्ष की उम्र में स्कूल की डगर पकडऩा, तो बबन के लिए महज एक घटना थी। अक्सर कभी उससे बड़ा भाई (किशोर) छुट्टी करता या वह, क्योंकि एक साथ दोनों के स्कूल चले जाने से गाय-भैंस दोनों सँभालना मुश्किल हो जाता था। लेकिन अचानक उसका मन स्कूल में रम क्या गया, वह मुँहजोर और जिद्दी बन गया। बड़े भाइयों के थप्पड़ खाकर भी वह कुछ ज्यादा ही स्कूल जाने लगा था। उस थप्पड़ की गूँज अब भी याद है उसको।

            स्थितियाँ अगर ऐसी न बनतीं, तो हरगिज नंगे पाँव और फटे-पुराने कपड़े में बबन लगातार स्कूल नहीं जाता रहता!...चौथी कक्षा में एक बार तो इस कारण ऐसी विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ा कि कभी भुलाया नहीं जा सकता। उसका डोरीवाला पैंट चूतड़ पर जरा फटा था। जैसे-तैसे अंग छुपाते वह पीछे की पंक्ति में बैठ गया। संकोच और मुश्किलों के बावजूद दो बार 'पाँच मिनटभी गया। आखिरी घंटी में हेडमास्टर हीराबाबू ने आते ही, नियमित आगे बैठने के कारण, उसको बोरा लेकर आगे आने को कहा। अब तो लगा, वह शर्म से गड़ जाएगा। बड़े भाई पर गुस्सा और खुद पर ग्लानि!... लेकिन हीराबाबू के रौद्र-रूप को देखकर उसे तत्काल आगे बढऩा पड़ा। पढ़ाई पूरी हुई और छुट्टी की घंटी बजी। वह जरा रुककर सबसे पीछे कमरे से निकल रहा था। दरवाजे के बाहर अभी दूसरा पैर रखा ही था कि वहाँ छुपकर खड़ी कक्षा की एक स्मार्ट लड़की ने उसके फटे में हाथ डाल दिया। लड़के के सिर से पैर तक एक तेज लहर दौड़ गयी। मानो पक्षाघात हो गया था!...इसके बाद भी अरसे तक वह लड़की उसके पीछे पड़ी रही, मगर वह सामना करने का साहस कभी जुटा नहीं पाया। प्राय: यहीं से कोई हीनग्रन्थि और एक प्रकार का डर उसके भीतर बैठ गया था जिस कारण बाद में भी वह खुद को ढकने की चिन्ता में लगा हर सम्भ्रान्त-कुलीन और तथाकथित खूबसूरत लड़कियों से दूर-दूर छिटका रहता था। खासकर 'उन जैसियोंका एकान्त-साथ तो उसको दहशत से भर देता था।

            पाँचवीं तक स्थिति लगभग एक जैसी रही। छठी कक्षा में कुछ स्कॉलरशिप वगैरह मिलने की सम्भावना देख पढ़ाई के लिए समय मिलने में थोड़ी-थोड़ी बढ़ोतरी होती गयी। तभी चरवाहे के रूप में बरहमदेव नामक एक लड़के को रखा गया, बाद में जिसके छोटे भाई धरमदेव-करमदेव भी कुछ-कुछ समय के लिए आये। उनकी सेवा याद है। लेकिन चौदह पार कर गया था वह और कटाई-गोराई, कमौनी-निकौनी के साथ ही बाजार के लिए बिकवाली ढोने से लेकर भाव-बट्टा तक में पारंगत हो गया था, सो दायित्व भी बढ़ गया।

            इसी तरह घर-गृहस्थी के असंख्य कामों के बीच उसने आठवीं पास की। पहली दफा शहर दर्शन हुआ, नौवीं कक्षा में चकला-निर्मली सुपौल के तिलकधारी कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लेने पर। पायजामा, शर्ट, तौलिया, चादर, रजाई, मच्छरदानी आदि हर कपड़े नये-नये! ऑयल-लैम्प और ग्लास-प्लेट भी! मेस के मासिक-बिल के अलावा दस से पन्द्रह रुपये पॉकेट खर्च मिलते। तब 'शहर का गौरवकहलानेवाला गंगा टॉकिज शुरू ही हुआ था। टिकट-रेट शायद सत्तर पैसे से एक रुपया नब्बे पैसे तक था। महीने में एक या दो फिल्म जरूर देख लेता था वह। पढ़ाई के लिए भरपूर समय मिलने लगा, साफ-सुथरा रहने की तमीज के साथ तेल-साबुन की सुविधा मिली और क्रिकेट, बॉलीबाल, फुटबाल, बैडमिंटन जैसे खेल से सीधा जुड़ाव हुआ। कई पत्रिकाएँ और अखबार पढऩे की ललक जगी!...हाँ, सुरेश प्रसाद यादव की मेस-कंडकट्री भी याद है! महीने में छह किलो दाल प्रति छात्र लेते थे और खाने में छह दाल भी नहीं मिलती थी। सड़े-गले आलू के साथ बाजारभर में सबसे सस्ता मिलनेवाली थोड़ी हरी सब्जी और ज्यादा पानी का घोल भी थोड़ा-थोड़ा मिलता था। तभी तो एक बार सबके साथ खाने का बहिष्कार किया था। लेकिन मामला 'भारतीयढंग से ही सुधरा, फिर बेतलवा वही डाल! तभी प्रीफेक्ट चुनाव, छात्र-राजनीति की पीठिका बनी थी। एक तरह से उसकी दुनिया बदल गयी थी!

            लेकिन बबन को सुपौल में एक साल भी पूरा नहीं हुआ कि भाइयों में बँटवारा हो गया!...अब बबन पढ़ाई करे या खेती?...

            इस द्वन्द्व में वह उलझा ही था कि एक और दुर्घटना हो गयी। दशहरे की छुट्टी में वह गाँव आ रहा था। अपने स्टेशन पर नाश्ता-पानी कर रेलवे लाइन के किनारे से निकला ही था कि पड़ोस के गाँव के एक सामन्त घराने के लोगों ने अचानक उसके सीने पर बन्दूक तान दिया। यह तो काफी बाद में पता चला कि उस सामन्त घर की एक लड़की, जो उस लड़के के साथ मिडिल स्कूल में पढ़ चुकी थी, को किसी ने कोई प्यार-व्यारवाली चिट्ठी लिख दी थी जो पकड़ा गयी। यह तो नहीं कह सकता कि किस आधार पर, मगर मान लिया गया कि चिट्ठी बबन ने लिखी होगी। फिर क्या था, लड़की के बाप-भाई को जैसे ही किसी के माध्यम से उसके आने की खबर मिली, रास्ते में ही घेर लिया।...

            खैर, उसकी जान तो बच गयी! मगर उस घटना के बाद उसकी हजार से ज्यादा रातें सीने पर तनी बन्दूक के साये में दु:स्वप्नों की भेंट चढ़ गयीं। पन्द्रह-बीस वर्ष से जो मैं अनिद्रा का मरीज हूँ, कदाचित इसके पीछे उस घटना का भी हाथ हो। दरअसल, उस घटना के बाद भी उस तक धमकियाँ आ रही थीं। उसी बीच एक नयी घटना हो गयी। उस बन्दूकवाले यानी लड़की के पिता ने दिनदहाड़े अपने एक हलवाले को मार दिया। उनका बाल-बाँका नहीं हुआ। पुलिस-दल घंटों विनम्र आग्रह करके बिना गिरफ्तार किये लौट गया।

            कानून-व्यवस्था के प्रति बबन के भीतर विश्वास था ही कम, अब तो बचा-खुचा भी खत्म हो गया! हर जगह विपक्ष में खड़ा होते-होते व्यवस्था और प्रभुवर्ग के प्रति नफरत बढ़ती गयी। एक सीमा के बाद आप कह सकते हैं कि वह उग्र सोच के करीब चला गया था, लेकिन वैसा सम्पर्क-संगठन या साहचर्य नहीं मिला उसको।

            ऐसे समय में भाइयों के बीच हुए उस बँटवारे से भी उसको अफसोस नहीं हुआ। उसने अपने हिस्से के पशुओं को बेदर्दी से बेचना शुरू किया। गाँव और सम्पत्ति का अर्थ उसके लिए बदल गया था।

            इस बीच अजीब तरह से उसमें एक परिवर्तन आया। वह गाँव के पढ़े-लिखे व सम्भ्रान्त लोगों से कटकर रहने लगा। बचे समय को महाभारत और हिन्दी उपन्यास के अलावा संस्कृत साहित्य के अध्ययन में लगाने लगा। यह अध्ययन इस कदर बढ़ गया कि जो भी पढ़ा-लिखा साथी या अन्य व्यक्ति मिलता, अक्सर कह देता, ''कवि-साहित्यकार बनबें रौ?’’ और अचानक उसके मन में कौतूहल-सा पैदा हुआ कि आखिर कवि-साहित्यकार कौन बनता है?...क्यों बनता है?...कैसे बनता है?...मगर बतानेवाला कोई नहीं था। इसके उलट उसके इंजीनियर बनने की सम्भावना को लेकर आश्वस्त लोगों की कतार थी। ये दो पाटन थे जहाँ वह पिस रहा था।

            लेकिन इंटरमीडिएट में भागलपुर जाने तक उसकी तात्कालिक प्राथमिकता निश्चित हो गयी थी। यह दीगर बात है कि प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे रचनाकार के उपन्यासों के अलावा प्रेमचन्द के विविध-प्रसंग भाग : एक-दो और मानसरोवर के सभी खण्ड पढऩे का अवसर उसे भागलपुर में ही मिला। काफी संख्या में फिल्में भी उसने वहीं देखीं। संघी सोचवाले से उसका विरोध भी वहीं शुरू हुआ। मगर गम्भीर छात्र गणित, भौतिकी और रसायनशास्त्र का ही रहा। भाषा वाला पेपर और अध्ययन माध्यम अँग्रेजी। लक्ष्य अलग ही था!

            इंटरमीडिएट की परीक्षा तक जैसे-तैसे सब कुछ सही-सलामत ही गुजरा। आगे इंजीनियरिंग की तैयारी के प्रसंग में कोचिंग लेने के लिए वह दिल्ली गया। लेकिन दूसरे महीने ही खर्चे का ऐसा संकट आया कि उसे तत्काल लौटना पड़ा।

            भाई ने असमर्थता जाहिर करते अपना रोना रोया। भाभी ने उसके पढ़ाई-खर्च उठाते-उठाते कंगाल हो जाने की घोषणा में यह भी जोड़ा कि आगे वह बबन के कफन के नाम पर भी घर से चवन्नी नहीं जाने देगी।

            मगर कुछेक चवन्नी कुछ माह और मिलीं! चूँकि इस बीच की तैयारी से, मित्रों और रिश्तेदारों की अभिलाषाओं से बबन के भीतर भी इंजीनियर बनने की इच्छा बहुत आगे बढ़ गयी थी। सो वह हर हाल में अपनी तैयारी जारी रखना चाहता था। कुछ माह पटना रहकर उसने न्यूनतम खर्च की पूर्ति के लिए अनेक तरह से अभ्यर्थना की। मगर वे कुछ माह तीन-चार से आगे नहीं जा सके। खर्च मिलना बिलकुल ही बन्द हो गया।

            अभिलाषाओं के पंख जलाकर वह शीघ्र गाँव लौट आया। मगर जले पर लगाने लायक मरहम गाँव में नदारद था। भाँग का सेवन करते घाव पर जरा-सी पपड़ी जमी, तो दोस्तों ने हौसला दी, ''क्या देखता है! मर जा साले!’’ तब बबन ने गाँजे भरकर चिल्लम सुलगाते मेरी तरफ बढ़ाकर कहा, ''ले गौरीनाथ, उठा चिल्लम! मैं इस आग में समा रहा हूँ। मुझे जलाकर मुक्ति दे और कौटुम्बिक अभिलाषा, आकांक्षा सबसे दूर तुम अपनी रुचि और आवारगी के साथ निकल जा अपने मनचाहे सफर पर!...’’

            और मैं, गौरीनाथ, बबन का दाह-संस्कार तत्काल कर मिरचैया के पास गया। मगर वह तो कुँआरी विधवा की तरह रो रही थी! जहाँ-तहाँ भटकते खूब रात को घर लौट भूखे सो गया। पूरबैया के झोंके में खुले किबाड़ के पल्ले टकराते रहे रातभर। गाँजे-भाँग के असर के बावजूद आँखें खुलती रहीं रातभर। अगली सुबह कांधे पर झोला टाँगकर निकल गया अनजान पथ पर। मगर दु:खद बात कि बबन उस चिता पर जलकर भी पूरी तरह मर नहीं पाया। उसका प्रेत गाँव के सिवान पर आज भी दिख जाता है जब-तब।

            मैं, गौरीनाथ, बबन की 'हमआत्मा’, उसका डुप्लिकेट उसी दिन उस गाँव से बेदखल हो गया। मेरा कोई घरबार नहीं रहा वहाँ, कोई अभिभावक नहीं। हर लीक को छोड़, एक आजाद परिन्दा की तरह उड़ चला दुनिया-जहान की खाक छानने। 
(जारी....)

Sunday 21 August 2011

एक चरवाहे का सफरनामा : दो


            दोस्तो! मैं पहले ही बता दूँ कि मेरे पास अपना लगभग कुछ नहीं है!यहाँ बताने लायक जो कुछ है, उस चरवाहे की देन है। मिरचैया पलार की जो भी कथा सुना रहा हूँ, वह उसी चरवाहे की अनुभव-स्मृति से....

            सो भाई, मैं ठहरा डुप्लिकेट! फोटोकॉपी!...कितनी भी दूर हो मूलप्रति, मूल आखिर मूल है। स्मृतियाँ अगर धोखेबाज न हों, तो गर्भगृह से मृत्युद्वार तक का रास्ता सदा रोशन नजर आता है।...और नाचीज इस बात पर यकीन रखता है कि आँखें अगर खुली हों और राह-रोशन तो गिरने की आशंका बेकार! आप मुझे दिल्लीवाला कहें (हमारे पटनियाँ मित्र 'दिलिआइटकहना पसन्द करते हैं), दिल्लीवाले (जो खुद 'बाहरीहैं) 'बिहारीही कहेंगे, मैं अपने श्मशान से शोक की खबरों तक का सम्पादन अपनी नजर देख रहा हूँ। इसलिए छुपाऊँ क्या, दिखाऊँ क्या का द्वन्द्व नहीं है, फिलवक्त तक पारदर्शी जीवन जीने में ही अपने को यकीन है।...
          
   वह चरवाहा बबन कहलाता है। उसकी माँ ने छुपाकर चावल बेचा और पचीस-पचीस पैसे के तीन सिक्के दिये, तो गुरुजी ने स्कूल रजिस्टर में दर्ज किया उसके डुप्लिकेट का, यानी मेरा नाम गौरीनाथ (पूँछ के तौर पर 'मिश्रजोड़कर)। मगर गाँववाले आज भी उसको बबन ही पुकारते हैं। बाद में 'अन्तिकासम्पादक के तौर पर अनलकान्त नाम भी अस्तित्व में आया जो मैथिली के लिए ही पेटेंट होकर रह गया।

            बहरहाल बबन के घर-परिवार या दूर-दूर तक के परिचितों में कोई लेखक-पत्रकार या साहित्यिक अभिरुचि का नहीं था। फिर वह अपनी जमीनए!.. तलाशने कहानी की तरफ क्यों और कैसे बढ़ा?...वह गीत है न, 'कौन दु:खें बनलै तू जोगी रे?’...

            ...नदियों का जालवाला उसका इलाका है। खैरबन्ïने का साम्राज्य! बालू की ढूह! 

          उपजाऊ जमीन थी और गड्ढे-नाले-टीले भी। मगर नदियाँ इस कदर अल्हड़ हो जातीं कि नीचे की जमीन पर बाढ़ और ऊँची जमीन पर सुखाड़ एक साथ देखने को मिलते। परिणामत: भाग्य और भगवान के भरोसे जीवन व्यतीत करना यहाँ के लोगों की विवशता रही है। सड़क, बिजली, पुल, स्कूल, अस्पताल जैसी प्राथमिक सुविधाओं से आज तक महरूम है यह गाँव। सिर्फ रेडियो तरंग से फूहड़ मनोरंजन और झूठे समाचार उपलब्ध होते हैं! सूखी नहर, पुलिसिया दमन, कानूनी लालफीताशाही के जरिए आमजन के साथ सरकारी लूट-बलात्कार का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है।

            फिर भी साधारण-जन जी-तोड़ परिश्रम की बदौलत हर तरह की फसलें उगा लेते हैं। सुनहले पटसन से खूब लाल-लाल मिरची तक। मछलियों की भी अच्छी आमद है। वैसे मोटे अनाज के साथ नमक-मिरची पर भी यहाँ सन्तोष दिखता है। नमक-मिरची के साथ दो बूँद तेल, आम का अचार अथवा खेसारी दाल (जिसके खाने से बेरी-बेरी या सूखा-रोग होने की बात कही जाती है) या जंगली साग भी मिल जाये, तो धन्यभाग!

            ताल-मखाना इतने महँगे होते कि यहाँ के किसान-मजदूर उपजाकर भी इस तथाकथित क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचानवाले भोज्य-पदार्थ से जीभ तृप्त नहीं कर पाते। 'तिलकोड़के पकौड़े के लिए भी उसके घर पर्याप्त तेल नहीं होता (बाबा नागार्जुन चाहे जितने गुण गाएँ इसके)! मछली के बाद दूध-दही ही आय का साधन होने के बावजूद कभी-कभार कंठ तक जाता!...

            बबन ने भी अपने घर वही सब देखा था। अन्न के दाने-दाने सोने से ज्यादा मोल का समझा जाता था। खासकर स्त्रियाँ कुछ ज्यादा ही श्रम और निष्ठा से अन्न-संरक्षण यज्ञ में लगी रहतीं। लेकिन बबन के वर्ग में काहिल-निकम्मों की एक जमात हमेशा रही जिसकी आदत में मेहमानी करना और गप्पें मारना खैनी-बीड़ी की तरह शुमार था। वर्चस्व कुलीन धनवानों का था, तो नकल उसकी ही संस्कृति की होगी न! सो पितृभक्त पुत्र, स्वामीभक्त चाकर और पतिव्रता स्त्री के आदर्श-सूत्र के पालन में एक-से-एक वितंडा खड़ा होता रहा। कर्मकांड और अन्धविश्वास कायम रहा!...आखिर जनसाधारण क्या और कैसे करे?...

            बबन ने जब होश सँभाला, तो उसके सामने अबूझ और अस्पष्ट रूप में ये ही सवाल टँगे थे। सम्भव है, पहली बार इसी से उसके भीतर की कथाभूमि नम हुई हो!...
(जारी....)

Wednesday 17 August 2011

एक चरवाहे का सफरनामा : एक



धान के झुके शीशों से सूरज की पहली किरण के साथ टपकती हैं ओस की बूँदें। गेहूँ के शिशु किलकारी के सन्देशे देते अपनी जड़भर पृथ्वी को गीला करते हैं। खेसारी के गद्दे हरी-भरी कुँवारी दूबों के नर्म-नर्म दल से भी ज्यादा लचक के साथ इतरा रहे हैं। सरसों के फूलों में होती है हलचल। मिरचैया के कलकल पानी में छलछल करती है रेवा और बाँध कूद खड्ड में गिरी गरैई मछली कीचड़ में लिथड़ी तड़प रही है। एक बगुला उड़ता है कऽक्-कऽक् करते। किसी गरुड़ के पेट से होकर बार-बार निकल आता है साँप। कहीं लाश पर गिरता है गिद्ध। कहीं से प्रभाती और भजन की मद्धिम धुन सुनाई पड़ रही है। हलवाहे लगे हैं अपनी फिक्र में और बथानों से आने लगी है गाय-भैंस दुहने की आवाज!...
            मैं तेजी से सिर झटकता हूँ, लेकिन दृश्यों का सिलसिला टूटता ही नहीं!...उस धरती-आकाश से इस कदर नाभिनालबद्ध रहा कि थोड़ा मेरा आत्म-अंश वहाँ छूट गया है, थोड़ा वहाँ का वातावरण-अंश मुझमें खुबा चला आया है!...अक्सर धान-खेत बीच की झोपड़ी के एकान्त में मैं पुआल की गर्मी जो महसूस कर रहा होता हूँ, वह अकारण तो नहीं?
            सदाबहार-से जंगल के बीच से एक गाँव कौंधता है! विशुद्ध किसान-मजदूरों का फुसघरों-झोपड़पट्टियोंवाला गाँव। कालिकापुर! परगना : हरावत। जिला : सहरसा (अब सुपौल)। दो तरफ लक्ष्मीनियाँ, दक्षिण : डोडऱा, पश्चिम : गोविन्दपुर। आगे गेडऱा, पीछे मिरचैया। खैरबन्ने से दूर, बाँसवन के समीप, कलमबाग से लगी बस्ती। अगवाड़े-पिछवाड़े निबटाती स्त्रीगण गोभी गाछ में पानी डालती, राख फेंकती, चूल्हे-चौके सँभालती हैं। पुरुषजन सँभालते हैं खेत-बथान। तभी दस-बारह साल का एक लड़का आँखें मलते जगता है और गाय-भैंस दुहाने के छोटे-बड़े बरतनों के साथ खुद से बड़ी लाठी लेकर चलता है मिरचैया पलार। अपने बथान।
            नदी, जंगल और रेत के साथ हिलता-मिलता है वह। दूध चला जाता बिकने बाजार। पशुओं को खोलकर वह लड़का बेर के ऊपर से जलेबी के नीचे पहुँच अमरूद कुतरता है।...
            सींकिया कद के उस लड़के का गोरापन धूल-मिट्टी और गन्दे कपड़े में छुप गया है। पैरों में बिवाई और घुटने तक जमी मैल की मोटी परत! ज्यादा आग तपने के चलते जंघे तक उभर आये हैं लाल-लाल चकत्ते (स्थानीय भाषा में जिसे आगितप्पा कहते)। मगर इन सबसे निस्पृह वह लड़का साथी चरवाहे की राह तकते, अपने प्रिय पशु की गरदन सोहराते, उसके जू-अठगोड़बे निकालने में लीन है!...वह पशु भी अपनी रूखड़ी जिह्वा से उसके बाँह-कन्धे और बालों को चाट रहा है!...
            सूर्य ऊपर चढ़ता है और देखते-देखते अल्हुआ-मुड़ही खाते कई चरवाहे अपने-अपने पशुओं के साथ आ जाते हैं। जमने लगती है मंडली। अबूझ-सी उदासी छँटती है। खेल-कूद, शोर-शराबा और शरारतों का दौर शुरू होता है कि उस लड़के के घर से कोई आ जाता है। लड़का समझ जाता कि अब नौ बज गया और वह साहुड़, नीम या चिरचिरी का दातुन करते सरपट भागता है।
            कुल्लाकर वह सिर पर से दो बाल्टी पानी डालता है। न देह मलने की जरूरत, न देह पोंछने का ज्ञान! आईने-कंघी का भी प्रयोजन नहीं पड़ता है। वही गन्दा इकलौता डोरीवाला पैंट और घर में रखी एकमात्र शर्ट। जैसे-तैसे भाप छोड़ता खाना झटपट निगलकर तैयार होता है।
            गाँव के और भी दो-चार बच्चे दो किलोमीटर दूर स्थित लक्ष्मीनियाँ मिडिल स्कूल पढऩे जाते हैं, लेकिन वे सब आगे निकल चुके होते। वह लड़का एक हाथ से बस्ता दबाए, दूसरे से बैठने के लिए तहाकर बोरे थामे अकेले दौड़ पड़ता है।
            उसके स्कूल पहुँचने तक प्रार्थना की लाइन लग गयी होती है। देर के लिए सटाक-सटाक छड़ी बजरती है और शुरू होता है चिल्लाना, 'हे प्रभु आनन्ददाता, ज्ञान मुझको दीजिए!...
            कक्षा लगते ही वह चरवाहा पढ़ुवा छात्र बन जाता है। रहमान साहब पूछते हैं, ''शेरशाह ने प्रजा की भलाई के लिए क्या-क्या किया था?’’ जवाब तो ठीक लेकिन एकाध शब्द इधर का उधर हो जाता है। धड़ाक-धड़ाक छड़ी बजने लगती है। ऐसी दहशत रहमान साहब की कि सब गलती कर जाते हैं। पूरी क्लास पिट जाती है।...टिफिन-ऑवर में घर तो वह दूरी के कारण नहीं आ पाता, लेकिन स्कूल में टिफिन के लिए कुछ ले जाने की जरूरत, दूसरे को खाते देखकर भी, उसने कभी क्यों महसूस नहीं की, यह नहीं बता सकता है वह। बस, चार बजे, छुट्टी की घंटी बजते सीधे घर की तरफ भागता है।
            रास्ते में एक नाला पड़ता है जिसमें सात-आठ महीने पानी होता है। उस नाले के पानी में पश्चिम की तरफ लौटते वक्त सूर्य के ताप से जलते उसके लाल चेहरे की परछाईं पड़ती है। उस परछाईं में वह खुद को पहचान नहीं पाता, मगर परछाईं उसका पीछा नहीं छोड़ती है।
            घर पहुँच बोरा-बस्ता पटक वह दोपहर के बचे-खुचे ठंडे खाने पर टूट पड़ता है। कई बार अगर खाने में चावल की जगह रोटी रही, तो बैठकर खाने का भी मौका नहीं मिलता है। सीधे फरमान जारी रहता कि खाते-खाते ही लाठी लेकर भागो पलारगाय या भैसों के पास! लड़का बहुत विरोध भी दर्ज नहीं कर पाता है। मड़ुआ-मकई या गेहूँ की रोटी नमक-मिरची-अचार के साथ कुतरते काँख में लाठी दबाए चरवाही पर निकल जाता है। दूर कहीं चलती होलर-चक्कीवाली मशीन की पुक्-पुक्-पुक्-पुक् और चिडिय़ों की आवाज समाँ बाँधती है।
            अँधेरा गहराते, आठ बजे के करीब, बथान से निवृत्त होकर वह घर लौटता है। पैर-हाथ धोकर अलाव अगोरता है। गप्पें पीते हीं-हीं, ठीं-ठीं करते रहता है। गप्प-कथा और डींग मारने के मैदान से होकर घर के बुजुर्गों के साथ ही वह खाना खाता है। फिर गपियाते या गीतकथा सुनते जहाँ जगह मिलती वहीं सो जाता है।
            पढऩे-लिखने के लिए समय, किताब-कॉपी या अन्य जरूरी-सुविधा की बाबत मुँह खोलने पर उसके बड़े भाई माधवनाथ एक किस्सा सुनाते हैं!...किस्से में एक बहुत ही दु:खी और गरीब बालक है। वह बालक दिन-भर चाकरी से जुड़े असंख्य कामों में लगा रहता है। उस पर एक किताब-दुकानवाले की दया तो है, मगर रात को भी फुर्सत नहीं। बस, महीने में एक बार किसी तरह उस किताब की दुकान में जाता है और रातभर में कई किताबें पढ़ जाता है। बुद्धि इतनी तेज है उसकी कि जो एक बार पढ़ता, कभी भूलता नहीं। सम्पूर्ण कंठस्थ!...और इसी तरह बी.ए.-एम.ए. कर एक दिन वह घरेलू नौकर से बड़ा हाकिम बन गया!...
            सम्भव है, तब तक वह चरवाहा कालिदास से जुड़ी दन्तकथा भी सुन चुका हो! उसके एक चाचा संस्कृत पंडित थे। गीता, रामायण और महाभारत से वैसे तो सबका जुड़ाव था, लेकिन पिता के साथ गीता, मँझले चाचा के साथ रामायण और छोटे चाचा जो खलीफा भी थे, के साथ महाभारत चिपके-से थे।...लेकिन उस जिद्दी चरवाहे को दो में से किसी भी किस्से पर यकीन नहीं हो पा रहा है। इतना भी नहीं जितना उसे अपने स्वप्न के किसी अज्ञात-अनजान 'जल्लासोट नामक प्रदेश पर यकीन है।
            और वह लड़का नींद में चला गया है जल्लासोट और बाँसुरी बजाते ढूँढ़ रहा है अपनी प्रिया!...
            मैं फिर तेजी से सिर झटकता हूँ। बड़ी मुश्किल से ध्यान जरा भंग होता है। ओह! कहाँ भटक गया था मैं?...
(जारी....)

Saturday 13 August 2011

एक गाँव के दायरे से कुछ सांस्कृतिक चिंताएँ

जहाँ की धूल, मिट्टी, पानी और आबोहवा में खेलते-धूपते बड़ा हुआ वहाँ आज खुद को मैं अजनबी की तरह भौंचक्क और असहाय पाता हूँ। समझ में ही नहीं आता कि चालीस साल पहले मिथिलांचल के जिस कोसी क्षेत्र में मेरा जन्म हुआ था वह दो-ढाई दशक में इतना अपरिचित क्यों और कैसे हो गया!...बदलाव प्रकृति का नियम है और उसकी एक सातत्य प्रक्रिया होती है, लेकिन वहाँ जो बदलाव दिख रहा है वह प्रकृति विरुद्ध तो है ही, उसकी प्रक्रिया भी इतनी अराजक, दिशाहीन और विस्मयकारी है कि आसानी से बयान नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं कि पहले यह क्षेत्र खूब धन्य-धान्य या स्वर्ग था! अहा, ग्राम्य जीवन क्या है जैसी कोई बात कभी नहीं थी!...तब भी यहाँ भयंकर 'दरिद्रा' बास करती थी। नरक से भी नारकीय स्थितियाँ थीं। गाँव क्या, निकट आसपास भी न कोई स्कूल था न अस्पताल। पक्की सड़क या बिजली के बारे में तो हमने दस-बारह साल की उम्र तक कुछ सुना भी नहीं था। गाँव के आगे-पीछे नदियाँ थीं जिनमें काफी दूर तक कोई पुल नहीं था। हर तरफ जंगल था, अंतहीन सा। कहीं-कहीं बाँस, इक्के-दुक्के फलदार पेड़—ज़्यादातर खैर, साहुड़, बबूल जैसे पेड़ों के झुरमुट साँप, सनगोह, बिच्छू, नेवले, गीदड़ से भरा। परती पलार झौआ-कास-पटेर के झाड़ों से आबाद। उपजाऊ ज़मीन नाम मात्र थी। गाँव-भर का हाल तब यह था कि साल-भर में डेढ़ सौ से ज़्यादा दिन चावल-गेहूँ (यानी भात-रोटी) नसीब नहीं होता था। साल के दो सौ से ज़्यादा दिन लोग उबले अल्हुए (शकरकंदी), उबली हुई खेसाड़ी-कुरथी और बाजरे-जनेर या कौन-चीन-जौ जैसे अनाज के सहारे काटते थे। मछली, खरगोश, कछुआ, बनमुर्गी, बटेर, लालसर, पड़ौकी जैसे जीवों के मांस तो लोग खाते थे, मगर उन्हें बनाने के लिए तेल-मसाले के लाले पड़ते थे। जीरा गिनकर और तेल बूँद के हिसाब से खर्च करने का चलन था। पूरे गाँव में एक सेट से ज़्यादा कपड़े तब नव विवाहिताओं को छोड़ प्राय: किसी के पास नहीं होते थे। बर्तनों का हाल यह था कि एक-दो से ज़्यादा मेहमान आने पर लोग पड़ोस के आँगन से थालियाँ माँगकर लाते थे। बीमारों का इलाज पथ्य-परहेज के अलावा घरेलू ढंग के उपचारों से ही होता था। झोलाछाप डॉक्टर भी तब आज के जितने सुलभ नहीं थे। थे तो झाड़-फूँक और टोटके थे। फुर्सत के इफरात क्षण थे और थी गप्पबाज़ी। हँसी तब सिर्फ होंठों से नहीं भीतर से खिलखिलाकर छलकती थी। 

तब व्रत-उपवास दिन काटने के लिए अन्न बचाने का तरीका लगता था। ईश्वर का नाम तब संकट के दिन गुज़ारने जैसी स्थिति में बल देने वाली अदृश्य शक्ति से ज़्यादा महत्त्व नहीं रखता था। पर्व-त्योहार तो थे, मगर ढकोसले और अंधविश्वास ज़रा कम ही थे। धर्म और ईश्वर को लेकर लडऩे-भिडऩे की स्थिति तो बिल्कुल ही नहीं थी। ईश्वर और धर्म की दुकान तब अपने गाँव की सीमान से दूर तक नहीं दिखती थी। एक ग्रामदेवता का थान (स्थान) शीशम के झुरमुट में ज़रूर था, मगर वहाँ भी साल में सिर्फ एक बार लोग जुटते थे। घंटे-भर के कीर्तन के बाद हरेक घर से भेजे गए एक-एक मुट्ठी चावल, कुछ केले और एकाध किलो दूध से बनी साझी खीर का प्रसाद लेकर सभी राज़ी-खुशी अपने घर लौटते थे। सामूहिकता की भावना संबंधों को आधार देती थी। कुटुम्बों का सत्कार और सम्मान एक घर मात्र का नहीं, गाँव-भर का फ़र्ज़ था। किसी एक की उपलब्धि का सुख गाँव-भर को सुख पहुँचाता था।...

मगर आज अपने उसी गाँव में मैं खुद को भौचक्क, असहाय और अजनबी महसूस कर रहा हूँ। उसी गाँव में जहाँ मैंने अपनी ज़िन्दगी के आधे से अधिक दिन गुज़ारे हैं। जहाँ वर्षों तक गाय-भैंस चराया। जहाँ से खेती-बाड़ी करते, मछलियाँ पकड़ते स्कूल का रास्ता तलाशा। जहाँ से चलकर बाहरी दुनिया से नाता जोड़ा।  उसी गाँव में मैं एकाकी हूँ जहाँ की धूल, मिट्टी, पानी और हवा मेरी रग-रग में बसी है और जिनके बिना मेरा अनुभव-संसार शून्य है।...

आज मैं अपने उसी कालिकापुर गाँव में बाहरी व्यक्ति हूँ।...

जनपद के बाहर सर्वप्रथम अठारह वर्ष की उम्र में 1987 में प्रवास पर निकला था। भागलपुर, पटना, सरहसा, दरभंगा, मधुबनी और गाँव...यानी 1995 तक ज़्यादातर वक्त बिहार की सीमा के भीतर ही अध्ययन और अन्य संघर्षों में गुज़रा।... सो कहा जा सकता है कि 1995 तक गाँव से जुड़ाव हर स्तर पर ज़्यादा था। यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि बदलाव की बयार उसी दौर में शुरू हो गई थी जब प्राय: देश के और-और गाँव भी बदलने की ओर अग्रसर हुआ होगा। इंदिरा जी के काल में 20 सूत्री कार्यक्रमों के माध्यम से गाँव में सरकारी धन ने 'लूट और फूट' की एक नींव रखी थी। राजीव युग तक और-और सब्सिडी स्कीमों ने इस व्याधि को चारों तरफ फैलाया। 
उसी दौर में बिहार में तथाकथित संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने की एक सरकारी योजना के तहत मेरे गाँव में भी मेरे पितामह के नाम से एक संस्कृत मध्य विद्यालय खुला। पिछले सत्ताइस-अट्ïठाइस वर्षों में उस विद्यालय ने साक्षर तो एक व्यक्ति को भी नहीं किया, लेकिन उस स्कूल से अन्य गाँवों के पाँच जनों के साथ ही एक ग्रामीण भी 'मास्टर साहेब' कहलाने लगे। जो और लोग 'मास्टर साहेब' नहीं बन पाए उनके साथ स्थानीय स्तर से कोर्ट-कचहरी तक जंग चली। और इन जंगों और कई अन्य बदलावों का प्रभाव कह सकते हैं कि आज वहाँ घर-घर में जंग छिड़ी है।

जंगलों की कटाई-सफाई 1982-83 के बीच शुरू हुई और 1986-87 तक पूरा इलाका लगभग उजाड़ हो गया था। 1990-91 तक आते-आते तो लगभग ऐसी विरानी फैल गई थी कि पहले के भौगोलिक परिवेश की कल्पना तक अविश्वसनीय लगने लगी थी। यह अभियान दरअसल खेती योग्य ज़मीन तैयार करने जैसे किसानों के नेक इरादे से जुड़ा था। उन किसानों को यह पता नहीं था कि खेती इस कदर बेमानी हो जाएगी, जैसी कि हुई। सरकार की कोसी सिंचाई परियोजना बिल्कुल असफल साबित हुई। उसके बाद सरकारी स्तर पर किसानों को सुविधा, सहायता देने या जागरूक बनाने को लेकर कोई ईमानदार कोशिश ही नहीं हुई। गाँव के हृदय पर मृत अजगर की तरह वह नहर आज भी लेटी हुई है जिसमें पानी कभी आया ही नहीं।

उस मरी हुई नहर और मरे हुए-से स्कूल (जहाँ मास्टर साहेब लोग कभी-कभार बैठकर खैनी खाते और गप्प हाँकते हैं) के अलावा उस गाँव के भीतर पिछली सदी में सरकारी योजनाओं से और कुछ दिखने लायक हुआ ही नहीं। हाँ, जब खेती लगातार घाटे का सौदा ही बनती गई तो लोगों ने बाहर ताक-झाँक करना शुरू कर दिया। पहले यहाँ सूचना का स्रोत रेडिया मात्र था। फिर बाहर से लौटे लोगों का अनुभव भी नई-नई बातें गाँव की हवा में फैलाने लगा। फिर बैट्री पर चलनेवाला टीवी भी गाँव की सीमा में प्रवेश कर गया। जिसके साथ-साथ फैलते गए पलायन और बाज़ार के वायरस!...1995 के बाद से मैं दिल्ली-गाजि़याबाद रह रहा हूँ। लेकिन साल में एक-दो बार कुछ दिनों के लिए वहाँ जाता ही रहा। कुछ दफा तो लगभग एक महीना भी रहा। फिर भी धीरे-धीरे हर बार कुछ ज़्यादा ही बेगानगी बढ़ती गई और आज स्थिति ऐसी हो गई कि उसका बयान करना मुश्किल लग रहा है।इस बीच पढ़े-लिखे लोग ही नहीं, अनपढ़-अशिक्षित श्रमिकजनों के साथ-साथ ऐसे तथाकथित कुलिन-मालिकान लोग भी जो गाँव में मज़दूरी नहीं करते, नगर-महानगर की तरफ झुण्डों में निकल चले हैं। मैंने 1987 में मैट्रिकुलेशन किया था। 23 साल हुए हैं। तब से आज तक गाँव की जनसंख्या दोगुनी से ज़्यादा हो गई है। सरकारी वेबसाइट भी चार सौ के लगभग जनसंख्या वाले उस गाँव की ताज़ा जनसंख्या साढ़े ग्यारह सौ बता रहा है। इस बीच आठ-दस लड़कों ने मैट्रिकुलेशन और एकाध ने ग्रेजुएशन किया है—मगर तब एक प्रतिशत लोग बाहर कमाते थे, आज पचास प्रतिशत बाहर कमा रहे हैं। आज गाँव में असहाय वृद्ध, महिलाओं और बच्चों को छोड़ कामकाजी के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। अब कहीं की सूचनाएँ जितनी देर में दिल्ली-कोलकाता पहुँचती हैं, उतनी ही देर में कालिकापुर भी। अब वहाँ पैसे भी पहले की अपेक्षा काफी ज़्यादा पहुँच रहे हैं। लगभग हरेक घर के एक या उससे ज़्यादा सदस्यों का किसी न किसी बैंक में एकाउण्ट है। लगभग  तीस प्रतिशत घरों की महिलाओं के नाम से भी बैंक में एकाउण्ट है। मोबाइल हर घर में। साइकिलों को कौन पूछे, कुछ मोटर गाडिय़ाँ भी हैं। तब एक भी पक्का मकान नहीं था पूरे गाँव में, आज कई पक्के मकान हैं। सीडी, डीवीडी प्लेयर के हरेक तरह के संस्करण अपना मार्ग उधर बना रहा है। गुटखा-पाउच से कोकाकोला तक अब यहाँ सहज ही 'ठंडा गरम' का परोसा बन रहा है। अब हर घर में रोज़ चावल या गेहूँ पकता है। अल्हुआ-मक्के-मड़ुआ या खेसाड़ी-कुर्थी धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। अब मछली और मांस के साधन पहले जैसे सुलभ नहीं, लेकिन उसकी खपत अलबत्ता कई गुना बढ़ गई है। ढाई सौ रुपए किलो वाले बकरे का मांस और दो सौ रुपए किलो तक बिकने वाली आंध्रा की मछलियाँ वहाँ के हाट-बाज़ारों में जितनी पहुँचतीं, सब खप जाती हैं।

वर्ष 2008 में वहाँ कोसी की भीषण बाढ़ आई थी। कई लोग तबाह और बर्बाद हो गए। कुछ लोग मरे भी। बाढ़ के बाद भीषण सूखाड़ आया। ज़मीन का जलस्रोत काफी नीचे चला गया। गाछ-बाँस सूखते गए, तालाब भर गया या सूख गया। गाँव के पश्चिम से गुज़रनेवाली सदानीरा नदी मिरचैया भी सूख गई।

फिर भी कुछ ऐसे अभागे जिनके पास बाहर कमाने लायक 'पूत'  नहीं, उनको छोड़ बाकी परिवार के ऊपर इस बाढ़ का प्रभाव कम ही मिलेगा। एकाध तो इस बाढ़ से इतने मालोमाल हुए हैं कि वे हर साल ऐसी आपदा आने की कामना कर सकते हैं। औसत और बहुतायत आमजन यदि इस आपदा से प्रभावित होकर भी अप्रभावित जैसे रह गए हैं, तो इसकी वजह है गाँव से बाहर काम करनेवाले उनके पारिवारिक जन। बात साफ है, प्रवास की कमाई पर चल रहा है यह गाँव। यही कारण है कि वहाँ घर-घर बैंक एकाउण्ट है ताकि प्रवासी पैसे का प्रवाह सहज हो सके और सरकारी योजनाओं के ड्राफ्ट भुनाने में दिक्कत न आए। लगभग एक दशक से तो इन्दिरा आवास योजना, जवाहर रोजगार योजना, आपदा राहत योजना आदि के पैसों का वैधानिक-अवैधानिक प्रवाह भी जारी रहा है।...

निश्चय ही आप सोच रहे होंगे कि जब गाँव इतना खुशहाल हो गया है, तो मैं क्यों दुखी हो रहा हूँ, अपनी बेगानगी को लेकर? सबकी खुशहाली देख, मैं क्यों खुश नहीं हो रहा हूँ? हमारे ग्रामीणजन तो मुझे 'दुष्ट प्रवृत्ति का आदमी' भी समझने लगेंगे!...

बहरहाल, मैं पूर्ववत दुखी हूँ और भौचक्क! विकास की इस अंधी और दिशाहीन दौड़ ने गाँव को पैसा ज़रूर दिया और उन पैसों से वे टीवी के विज्ञापन में दिखनेवाले अनेक उत्पाद भी खरीदने की स्थिति में आ गए हैं। लेकिन उनके खेत फिर से बंजर हो गए हैं या होते जा रहे हैं। अब वे अपने खेत की साग-सब्ज़ी कम और बाज़ार की सब्जि़याँ ज़्यादा खाते हैं। इलाज के लिए कई झोलाछाप डाक्टर भी आ गए हैं जानलेवा दवाइयों के साथ...। टोने-टोटके और अंधविश्वास भी पहले से ज़्यादा गहरे हुए हैं। ईश्वर के कई-कई ब्राण्डों की नई-नई दुकानें तो बढ़ीं ही, धार्मिक आयोजनों के बहाने शक्ति-प्रदर्शन भी बढ़े हैं। धर्म और जात-पात के बीच जितने मेल-मिलाप बढ़े, उससे ज़्यादा धर्म और जाति की राजनीति के समीकरण ने नए-नए अन्तर्कलह को जन्म दिए हैं। स्त्री शिक्षा पूर्ववत गौण रहे। मगर नारी उत्पीडऩ और दहेज चरम पर हैं। विवाहों में आडंबर और बर्बादी शहरी ढंग से ही अराजक रूप ले चला है।...

आँगन-दलान के बाड़े पर झिंगुनी के बेलों में पीले-पीले फूल आज भी मनोहारी लगते हैं। हरे-भरे पेड़, आम्र मंजरियों की मतवाली गंध और कोयल की कूक अभी पूरी तरह गायब नहीं हुई है। मेड़ों-एकपेडिय़ों से गुज़रते नीम-पाकड़ के नीचे सुस्ताते, नदी-नाले को जाते ग्रामीण जनों के खून का रंग पहले जैसा ही है। ऐसी ढेर सारी बातें पहले जैसी होने के बावजूद आज के ग्रामीण जनों के भीतर एक चालाक किस्म के शहरी की सम्पूर्ण धूर्तता-मक्कारी, लोभ-लालच, दाँव-पेंच के साथ ही गुड़ई के समस्त हथियार और औजार साधने का साहस अदभुत ढंग से विकसित हुआ है। अपनापे और भाईचारे की स्थिति यह है कि अब पड़ोसी के कुटुम्ब का अपमान लोगों को अदभुत सुख पहुँचाता है। अब बात-बेबात लाठी-भाले नहीं, कट्टे या कैमिकल हथियार का उपयोग किया जाता है। मुकदमे से बेहतर रास्ता आर्थिक नुकसान या सामाजिक प्रतिष्ठा हनन का अभियान लगता है।

यही कारण है कि आज हमारे गाँव के लोगों को जो लड़ाई लडऩी चाहिए, उसके लिए वे आगे नहीं आते। फलत: उनकी आर्थिक समृद्धि और बौद्धिक दरिद्रता दोनों साथ-साथ बढ़ रही हैं। जवाहर रोज़गार योजना के नाम पर हर साल कुछ खरंजा सड़कें और कुछ पुल बनते हैं और जल्दी ही ईंटें गायब हो जाती हैं। इसलिए आज तक यहाँ एक फूट भी पक्की सड़क नहीं बनी, न एक भी ढंग के पुल। बिजली भी नहीं आ पाई। हाँ, अब सायंकाल साझे जेनरेटरों की लाइट सप्लाई का नया फंडा ज़रूर आ गया है। इससे लोगों के मोबाइल चार्ज हो जाते हैं और बैट्री भी। सस्ता मनोरंजन, क्षणिक उत्तेजना मिलती रहे! न बने अस्पताल, न चले स्कूल! सड़क-स्कूल के बिना भी सुख का पुल बन ही रहा है।

ऐसे विषय काल में अपने ही गाँव में, मैं अजनबी की हैसियत में पहुँच चुका हूँ और अब उधर को जाने का मन नहीं कर रहा है, तो किसी को क्या फर्क पडऩेवाला है। पहले हर साल जाता था, अब दो-तीन साल पर एकाध रोज़ के लिए जाने पर भी कोई-न-कोई किसी-न-किसी बहाने अपमानित करने को तत्पर दिखता है। अब तो मेरे सगे भी मुझे अपनी ज़मीन से बेदखल करने को आगे आ गए हैं!...

दोस्तो, मैंने जिस गाँव की बात यहाँ रखी है उसकी सीमा से आपका जुड़ाव-लगाव भले न हो...मगर गौर करें कि उन बातों और विचारों का संबंध कहीं-न-कहीं आपके जुड़ाव-लगाव वाले गाँव से भी तो नहीं बनता है?...

  (यह डायरीनुमा टिप्पणी 14 जनवरी, 2011 को लिखी गई थी और 22 जनवरी, 2011 को कोलकाता के एक सम्मान-कार्यक्रम में वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत की गई थी. फिर इसका कुछ अंश ''अमर उजाला'' में आया था और अभी-अभी ''वागर्थ'' के अगस्त अंक में ''छूट गए गाँव से एक पुकार'' शीर्षक से पाठकों को उपलब्ध है.)

Friday 5 August 2011

अनुभव और अनुभूति पर बेदखली का संकट

सनगोह और सांप के बाद आप अनुमान कर रहे होंगे कि इस बार मैं किस जानवर के प्रसंग अपनी याद साझा करने आउंगा... लेकिन इस बार अनुभव से ज़रा दूर अनुभूति के कुछ प्रसंग यादों में झिलमिलाते आ रहे हैं.

यूं हमने जानवरों के बीच और उनके साथ रहते जो जीवन जिए और भोगे थे उससे काफी ज़्यादा गहरे विकट और जटिल जीवन हमारे बुजुर्गों ने जिया-देखा और भोगा था. अरना भैंसे, बनैया सूअर, चीते और लकड़बग्घे का आतंक तो हमारे बचपन के शुरुआती दिनों तक था ही... फिर भी जानवरों के साथ उनका जीवन जितना एडवेंचरस था उतना हमारा कहाँ? हमारे जीवन में अगर कुछ ख़ास बचा था तो यही कि हम अपने से पहले के अनुभव से कटे नहीं थे, हमारा संवाद अपने से पहले की पीढ़ियों से गहन से गहनतम ही रहा. लोक, परम्परा, अनुभव, ज्ञान आदि को हमने शास्त्रों से ज़्यादा जीवन से लेना बेहतर समझा. खैर...

बहरहाल, कई घटनाओं के बीच से एक वह घटना याद आ रही जो मेरे पिता के जीवन से जुड़ी है. वैसे इस प्रसंग में कुछ भी साझा करते एक संकोच हो रहा है कि आज के पाठक इस पर यकीन शायद ही करे! यह सच है कि अपने पिता के प्रति मैं बहुत ही सम्मान का भाव रखता हूँ, लेकिन ज़रा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं...

मेरे पिता के पेट पर कई ऐसे निशान भरे पड़े थे जैसे अमूमन बड़े ऑपरेशन के बाद बन जाते हैं... जबकि उनका कोई बड़ा ऑपरेशन तो दूर, कभी किसी बड़े डाक्टरों के क्लिनिक भी उन्हें नहीं जाना पड़ा था. कोसी तब नई-नई बंधने लगी थी. वे गोविंदपुर से आ रहे थे. मिरचैया बढियाई और उछाल थी. हेलकर नदी पार करते समय वे किनारे से कुछ ही दूर थे कि एक मगरमच्छ ने कमर से ऊपर उनके पेट पर जबड़ा कस दिया. मिरचैया के पुरबी किनारे पर दो-तीन मछुआरे और मेरे बड़े काका(ताऊ) खड़े थे. उन्होंने जब मेरे पिता को धारा के साथ बहते और उगते-डूबते देखा, तो स्थिति का अनुमान कर बचाने को भागे. 

मगरमच्छ ने उन्हें इस तरह जबड़ों में दबोच लिया था कि किनारे से पानी के बाहर तक उसी स्थिति में दोनों को लाया गया. बाहर लाकर मगरमच्छ के जबड़ों के बीच दो मोटी-मोटी लाठी उन लोगों ने डाली... और एक लाठी से नीचले जबड़े को दबाकर दूसरे से उपरी जबड़े को अलगा कर उन लोगों ने मेरे पिता को बचाया था.

यह घटना मेरे जन्म से काफी पहले की है. मगर उस ज़ख्म के निशान उनकी मृत्यु तक थे ही. कई बार उन निशानों को छू कर हम उस घटना के बाबत उनसे तरह-तरह के सवाल करते जिज्ञासाओं से भर जाते थे. तब एक अजीब भय से देह में सिहरन सी होती थी. अब तो उनको गुजरे इक्कीस साल हो गए. उस घटना के बाबत कभी-कभार अपने बच्चों को बताता हूँ, जो कि अपने दादा को नहीं देख पाए हैं, तो ये दोनों मुझसे भी ज़्यादा भय से भरकर एक अजीब उदासी के बाबजूद स्मृति की इस यात्रा में मेरे सहयोगी बन जाते हैं... 


ऐसे डर-भय से भरे अनेक प्रसंग हैं जो मिरचैया के साथ जुड़ी हमारी स्मृति में टंकी हुई हैं, मगर तब भी मिरचैया हमारे लिए कभी डरावनी या बेगानी नहीं हुई. यूं तो हमारी तरफ नदियों को माता कहा जाता है, मगर मैंने हमेशा से इस नदी को प्रेमिका की तरह ही देखा और माना है. और मेरी वह प्रेमिका जो बीरपुर-बसमतिया के बीच हैय्या कहलाती, पूर्वी कोसी केनाल (नहर) पार करते मिरचैया बन हमारे इलाके को पार कर तिलाठी, छातापुर, कर्णपट्टी, डपरखा(त्रिवेणीगंज के पूरब से) तक यही नाम लिए आगे को कोसी में मिलकर गंगा की तरफ चली जाती है.

क्या इस नदी के किनारे मैंने और हमारे और भी साथियों ने सिर्फ जानवरों के साथ ही अनुभव समृद्ध किया था? क्या हमने प्रकृति और मानव मन के साझेपन को यहाँ से बेहतर कहीं और समझा था? दोस्तो, जीवन का सहज आनंद और प्रेम का सब से स्वस्थ फल मैंने यहीं तो चखा था और यहीं से आज मेरे बन्धु-बांधव बेदखल करना चाहते हैं.

Wednesday 3 August 2011

अशांत सांप और मिरचैया पलार की शान्ति

तीस-पैंतीस साल पहले कालिकापुर से लगा मिरचैया पलार ही मेरा संसार था. तब इस पलार पर जहाँ तक नज़र जाती, दूर-दूर तक फैला विशाल खैरबन्ना ही नज़र आता था. कहीं-कहीं साहुड़, बबूल, नीम, जलेबी और झरबेरी जैसे कुछ पेड़... ऊँचे-ऊँचे टीले, उबड़-खाबड़ ज़मीन... बीच-बीच में कुछ गड्ढे-नाले... लम्बे-लम्बे कास, पटेर, खड़ही, सिकी, कुश-कतरा झाड़ और झौए के झुरमुट... अजब-गजब जानवरों से भरा एक अलहदा जंगली माहौल... उस माहौल में गांव-घर से पश्चिम की तरफ जानेवाले सारे रास्ते एकपेड़िया-खुरपेड़िया थे. यूं पूरब की तरफ जानेवाले रास्ते भी उससे बहुत भिन्न नहीं थे, बस थोड़े जंगलात उधर कम थे और वे रास्ते अक्सर गांव-ठांव से बाहर जाने में काम आते थे.

बहरहाल पश्चिम को और ख़ास कर मिरचैया पलार को जानेवाले रास्ते की अपनी ही विशेषता थी. मेड़ों, खेतों और बंसबिट्टी के बीच से गुज़रनेवाले उस रास्ते के दोनों तरफ काफी बड़ी-बड़ी घास फैली हुई होती थी. उन घासों में से बहुत से ऐसी थीं जिनका नाम हिंदी के शब्दकोशों में मिलना मुश्किल. एक कारीझांप थी जिसकी पत्तों से भरी झाड़ी बरसात में गजब रूप से बढ़ जाती थी. अदरक-हल्दी प्रजाति की अमादी और कचूर के पौधे भी उस रास्ते के किनारे भयानक रूप से फैले होते. वहीं केंचु (अरबी प्रजाति) के पौधे भी बिकराल रूप से जहां-तहां उग आते थे. और ऐसे परिवेश से गुजरते ये रास्ते बंसबिट्टी में तो और भी भयावह हो जाते...

दरअसल इन रास्तों पर दोनों किनारे से फैली घासों के बीच से कहीं भी साँपों के निकल आने की संभावना हमेशा बनी रहती थी. अक्सर पैरों के बीच से या पैर के ऊपर से साँपों का गुजर जाना आम बात थी. बंसबिट्टी के बीच के रास्ते में घासों के अलावा ऊपर से भी साँपों के टपक पड़ने की आशंका रहती थी. फिर बंसबिट्टी पार करते नीचे गब्बी होती थी जिसमें पानी और महीने भले कम या ना भी मिले लेकिन बरसात में बिकराल नदी ही हो जाती थी. और उस नदीनुमा गब्बी के पानी में मछली और साँपों में कौन कम कौन ज़्यादा यह कहना ज़रा कठिन होता...

खैर, इस गब्बी को पार कर गांव के पश्चिम स्थित पलार पर जैसे ही आप पहुंचते, मिरचैया पलार का खैरबन्ना साँपों, सनगोहों, सियार-गीदड-नेवलों से भरे और भयावह तो लगते ही, सुहावने भी कम नहीं लगते... उस खैरबन्ने में साँपों की इतनी आमद थी कि अक्सर रोज़ ही किसी न किसी संपेरों की टोली को सांप पकड़ते देखा जा सकता था. साँपों की संख्या भी कितनी थी कि संपेरे चाहे जितने भी पकड़ के ले जाते हों वो हर जगह सह-सह करते रहते थे. खेतों में, जंगल में, बांस में, घास में, गब्बी के पानी में, फूसघर के छप्पर में, कोडो-बत्ती में, बांस और जियल के खूंटों में... हर जगह जहां भी खोजो सांप ही सांप...

खैरों के झुरमुट में जहाँ दीबारी के भीण्ड ज्यादा होते और हल्की मिट्टी में कई बीवर, वहाँ सांप ज़्यादा पाए जाते. ऐसी जगहों को चारों तरफ से घेर के खोदा जाता तो उन्हें खूब सांप मिलता. यूं तो सेमार, हाड़ा, घेघना(केचली), कर्मी, लीध के साथ ही खड़हौड़या के डाभी-कास और पटुआ, राहड़(अरहर), अल्हुआ, कुरथी आदि की हरी-भरी फसलों के कोने-अंतरों में भी बहुतायत सांप होते थे, मगर वहां पकड़ना कठिन था. सो वे अक्सर खैरबन्ने में ही चढ़ाई करते. 

लेकिन उतने साँपों के बाबजूद तब संपकट्टी की घटनाएं कम हुआ करती थीं. अक्सर सांप पकड़ने वाले के साथ ही ऐसी घटनाएं होती थीं. या माल-मवेशी के साथ. आदमी सांप के साथ उतने असहज नहीं थे, जितने आज हैं.

हाँ, सांप निरंतर पकडे जाते रहे. मगर मैं आज तक ठीक-ठीक नहीं जान पाया कि इतने साँपों को ले जाकर वे क्या करते थे. कैसा व्यापार रहा होगा उन साँपों का?

आज सांप कम हैं, मगर सांप काटने की घटनाएँ पहले से ज़्यादा. एक ग्रामीण ने बताया कि आज ये सांप अति अल्प होकर बेजोड़े, असुरक्षित, अशांत होने के कारण आक्रामक हो गए हैं. अब सड़क हैं, तो उसके किनारे के घास-कन्दरों में ही इनका वास हो गया है और वहाँ से निकल हवा खाने के प्रयास में अक्सर गाड़ी के नीचे आकर जोड़ा में से एक बिछुड़ जाता है, तो दूसरा जिसको पाता है डंस लेता है...

इस परिवर्तनशील-असंतुलित ग्रामीण माहौल में जब सभी ग्लोबल हो जाना चाहते, सब के सब डियोड्रेंट-परफ्यूम-फेशवाश में डूब जाना चाहते, महंगे शेम्पू-साबुन-कंडोम, महंगे पैंटी-ब्रा-लंगोट के लिए जब सभी कुछ भी करने को तैयार हों, तो ऐसी चिंता में सर खपाना बेकार है... सब का अपना का जीवन अपना रास्ता...महंगे मकान, गाड़ी, लिबास, तड़क-भड़क और शानो-शौकत ही आज मुख्य है गाँव में भी...

Tuesday 2 August 2011

सनगोह की याद और मिरचैया के लिए मेघ से प्रार्थना

मालूम हुआ कि पिछले कुछ दिनों से मिरचैया पलार क्षेत्र में खूब बारिस हो रही है. निश्चय ही अब भी थोड़े हरे कास बचे होंगे जो इस बरसात में पुराने दिनों के रंग भरते होंगे. लेकिन खैरों का वो विशाल वन नहीं होगा. उस खैरबन्ने को याद करने वाले जरूर हैं और वो उसको कभी कभार याद भी करते होंगे, लेकिन उस खैरबन्ने में नज़र आनेवाले सांप-सनगोह और उसके साथ जुड़े बच्चों के डर की याद किसी को शायद ही होगी!

सनगोह यूं तो सांप से कम खतरनाक जीव माना जाता, लेकिन बरसात के इस मौसम में उसकी आमद बढ़ जाती थी और एक प्रचलित डर भी था कि वह किसी को फूंक मार दे तो आदमी इतना ज़्यादा फुल जाता कि अरसे तक किसी काम का नहीं रहता. हम में से किसी को उसने कभी फूंक नहीं मारा था, लेकिन हम सांप की तरह ही उससे भी डरते थे... यूं सच पूछें तो तब उतना नहीं डरते थे जितना अब उसकी याद डरावनी लगाती है. डरते-डरते भी हम सनगोह को देखते तो उसको खदेड़ने या मारने के मौके छोड़ते नहीं थे.

हमने कई सनगोह मारे जिनमें से कई के खाल खालकर हमारे साथ का एक लड़का ले जाता था. वह लड़का उस खाल से खेजड़ी नामक एक वाद्य यंत्र बनाता था. उस खेजड़ी की मीठी आवाज़ सुन हम सनगोह के डर बिलकुल भूल जाते थे. डरावना सनगोह और उसके खाल की मीठी आवाज़ वाली खेजड़ी! क्या अब भी कोई वैसी खेजड़ी बनाता होगा?

सांप को लेकर वह डर अब भी बारिस के इस मौसम में मिरचैया पलार जाने पर ताज़ा हो जाता है, लेकिन सनगोह अब दिखाते ही कम हैं. क्या इस डर के साथ अब खेजड़ी जैसे लोक वाद्य यंत्र के ख़त्म होने का डर नहीं शुरू हो रहा है? ऐसे ढेर सारे डरों की गवाह नदी मिरचैया जो लगातार सूखती जा रही है इससे कोई क्यों नहीं डर रहा है?

इस बीच मिरचैया पलार की याद के साथ जब मुझे सनगोह की याद आई तो मैंने शब्दकोशों को खंगाला, मगर कहीं "सनगोह" शब्द नहीं मिला. गूगल पर भी खोजने का कोई परिणाम नहीं मिला. तब मुझे लगा कि हो ना हो किसी दिन मिरचैया का नाम भी ना गायब हो जाये! और अपनी पहली प्रेमिका नदी मिरचैया की यादें बचाने को मैं वेचैन हो गया... और बरसात के इस मौसम में मेघ महाराज से यह प्रार्थना करने के अलावा मेरे वश में कुछ नहीं कि,  हे मेघ!बिहार के पूर्वी इलाके में जहाँ कभी कोसी बहा करती थी और जहाँ कुछ साल पहले भी कोसी मैया तफरी करने बाढ़ का उपहार लेकर आई थी और जो मिथिला का सबसे उपेक्षित भदेस इलाका है वहां मेरी पहली और इकलौती प्रेमिका मिरचैया पानी के लिए तरस रही है, कृपा कर के तुम वहाँ खूब-खूब बरसो, जम के बरसो!....

Monday 1 August 2011

सम्मान तो प्रतीकात्मक और भावनात्मक होता है...

कल हंस का रजत जयन्ती आयोजन था. उसमें एक सत्र सहयोगिओं के सम्मान का भी था. कल ही राजेंद्र जी का इस आसंग फोन आया. समय से सूचना ना होने के कारण इस आयोजन में ना जा पाया इसका अफ़सोस है. 

राजेंद्र जी ने सात-आठ महीने पहले कभी एक टिप्पणी मांगी थी मुझसे, हंस में काम करने के अनुभव को लेकर... व्यस्तता के चलते फिर ना मुझे ध्यान रहा और ना उधर से किसी ने उसके लिए खोज की और वो लेख जेहन में ही रह गया... सो कल रात मैंने  एक टिप्पणी पोस्ट की, मगर कुछ मित्रों की आपत्ति है उसके संक्षिप्त होने को लेकर... ऐसे दोस्तों से मेरा निवेदन होगा कि वह इससे मेरी तात्कालिक टिप्पणी ही माने... इस ब्लॉग में मैंने लम्बी टिप्पणी करने का सोचा भी नहीं, क्योंकि मेरा टाइपिंग स्पीड भी कम है और इस कार्य हेतु मैंने  सिर्फ शाम का समय देने को सोचा है. इसलिए यहाँ डायरीनुमा ही कुछ मुझसे संभव लगता है. वो डायरी भी मिरचैया पलार से बिछुड़े उस गौरीनाथ की डायरी होगी जिसमें उसके मरणासन्न गाँव से जुड़ा दर्द होगा, उसी को प्राथमिकता मिलेगी.

खैर, कल रजत जयन्ती आयोजन में भले ना जा पाया... उस अवसर का महत्त्व मेरे लिए है और रहेगा. आयोजन जरूर अच्छा रहा होगा... हंस के ज़्यादातर साथी इकट्ठे हुए होंगे. सम्मान तो प्रतीकात्मक और भावनात्मक होता है... यह भाव बना रहे. आमीन.

Sunday 31 July 2011

हंस की रजत जयन्ती और मेरे नौ साल...

तब मैं लगभग अट्ठाईस साल का था. दो साल पहले छब्बीस की उम्र में कालिकापुर छोड़ पत्रकारिता में रोज़ी-रोटी के ठिकाने ढूंढते मैं दिल्ली आया था और कुछ छिटपुट नौकरियों के बाद डेढ़ साल "कुबेर टाइम्स" में चाकरी करके मुक्त हुआ था. तब जयपुर के एक अख़बार में न्युक्ति के लिए अग्रज मित्र यशवंत व्यास ने आश्वस्त कर रखा था. देर मेरी तरफ से ही थी और उसका कारण यह था कि मैं तत्काल दिल्ली छोड़ना नहीं चाहता था. उसी बीच एक दिन वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट ने बताया की मैं "हंस" जाकर राजेंद्र जी से मिल लूं और वहां काम करूँ... वेतन आदि तय करने की जिम्मेदारी भी बिष्ट जी ने अपने ऊपर ले ली. 

वही हुआ.मैं हंस पहुंचा, पहले भाई अरोड़ा जी ने बिना किसी भूमिका के मुझे जिम्मेदारी और काम समझाया फिर राजेंद्र जी से मुलाक़ात करवाई. अनौपचारिक ढंग से थोड़ी देर बातचीत हुयी और चाय पीकर विदा हुआ. अगले दिन 16 अक्टूबर 1997 की सुबह दस बजे से वहां काम करने लगा...

हंस में काम करना मेरे लिए उसके पुराने पाठक होने के नाते जितना सहज और आसान था उतना ही कठिन भी. कठिन इसलिए कि मैं उसकी गौरवशाली परम्परा से परिचित था. इस कारण मेरे सामने एक बड़ी चुनौती थी कि एक साथ प्रेमचंद और राजेंद्र यादव के महत्व और प्रतिष्ठा का ख़याल हर पल रखूँ. कुछ भी करते यह डर रहता था कि कुछ गलत ना हो और यह एहसास  मुझे अपनी जिम्मेदारी हर पल महसूस कराते रहता था. साथ ही राजेंद्र जी का सहज अनौपचारिक सहयोग और उनकी तरफ से निर्मित जीवंत माहौल ने जल्दी ही मेरे भीतर के संकोच को दूर कर अपने ढंग से और काफी हद तक स्वतंत्र ढंग से काम करने का माहौल दिया. मुझे नहीं लगता कि मैं सामान्य जिम्मेदारी निभाने के अलावा हंस के लिए कुछ उल्लेखनीय किया, हाँ हंस के अनुभव ने मुझे जरूर हर तरह से सबल किया और आगे निजी तौर पर पत्रिका संपादन और प्रकाशन के लायक बनाया.

देखते-देखते नौ साल बीत गए. इस बीच हमने हंस के 108 (एक सौ आठ) अंक निकाले. उनमें से दो-तीन अंक स्वतंत्र रूप से मेरे संपादन में भी आये. राजेंद्र जी के सान्निध्य में मैंने काफी कुछ सीखा-जाना. उनके जनतांत्रिक व्यवहार और असहमतियों को जगह देने की उदारता ने व्यक्तिगत रूप से मुझे काफी आकर्षित किया. असहमतियों के सम्मान का साहस मुझमें राजेंद्र जी के सान्निध्य में ही विकसित हुआ.

निश्चय ही लम्बे समय तक साथ काम करते अनेक मुद्दे पर असहमतियां भी रहीं, गंभीर मतभेद भी रहे... लेकिन अब जबकि हंस छोड़े पांच वर्ष हो गए, अंतिका-बया के काम के दबाव और अनेक तरह की व्यस्तता के चलते मिलना-जुलना भी कम होता है तब सिर्फ अच्छी-अच्छी बातों को ही याद करना मेरे ख़याल से बेहतर होगा. यूं भी दुखद प्रसंगों को भूलकर कालान्तर में अच्छी बातों को ही साथ और याद रखना मैं बेहतर मानता हूँ. वह मेरी सीखने की उम्र थी और मैं उसी आसंग में अपने उस दौड़ को याद करूंगा.

आज जब हंस का रजत जयन्ती आयोजन हो रहा है, मुझ सा मामूली आदमी हंस से अपने जुड़ाव को याद कर के अभिभूत हो सकता है. मुझे बेहद ख़ुशी है कि एक लम्बे समय से हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वाधिक बिकने और पढी जाने वाली इस पत्रिका में मैंने भी नौ साल काम किए. राजेंद्र जी जो इस वक़्त हिंदी साहित्य के सब से जीवंत संपादक-लेखक हैं उनसे मैंने काफी कुछ लिया. उनके स्नेह का ऋण हमेशा रहेगा. इस अवसर पर राजेंद्र जी और समस्त हंस परिवार को बहुत बहुत शुभकामनाएं....