Monday 1 August 2011

सम्मान तो प्रतीकात्मक और भावनात्मक होता है...

कल हंस का रजत जयन्ती आयोजन था. उसमें एक सत्र सहयोगिओं के सम्मान का भी था. कल ही राजेंद्र जी का इस आसंग फोन आया. समय से सूचना ना होने के कारण इस आयोजन में ना जा पाया इसका अफ़सोस है. 

राजेंद्र जी ने सात-आठ महीने पहले कभी एक टिप्पणी मांगी थी मुझसे, हंस में काम करने के अनुभव को लेकर... व्यस्तता के चलते फिर ना मुझे ध्यान रहा और ना उधर से किसी ने उसके लिए खोज की और वो लेख जेहन में ही रह गया... सो कल रात मैंने  एक टिप्पणी पोस्ट की, मगर कुछ मित्रों की आपत्ति है उसके संक्षिप्त होने को लेकर... ऐसे दोस्तों से मेरा निवेदन होगा कि वह इससे मेरी तात्कालिक टिप्पणी ही माने... इस ब्लॉग में मैंने लम्बी टिप्पणी करने का सोचा भी नहीं, क्योंकि मेरा टाइपिंग स्पीड भी कम है और इस कार्य हेतु मैंने  सिर्फ शाम का समय देने को सोचा है. इसलिए यहाँ डायरीनुमा ही कुछ मुझसे संभव लगता है. वो डायरी भी मिरचैया पलार से बिछुड़े उस गौरीनाथ की डायरी होगी जिसमें उसके मरणासन्न गाँव से जुड़ा दर्द होगा, उसी को प्राथमिकता मिलेगी.

खैर, कल रजत जयन्ती आयोजन में भले ना जा पाया... उस अवसर का महत्त्व मेरे लिए है और रहेगा. आयोजन जरूर अच्छा रहा होगा... हंस के ज़्यादातर साथी इकट्ठे हुए होंगे. सम्मान तो प्रतीकात्मक और भावनात्मक होता है... यह भाव बना रहे. आमीन.

1 comment:

  1. Your take is at par with your basic stand in literature which is very sublime and pertinent..

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