तीस-पैंतीस साल पहले कालिकापुर से लगा मिरचैया पलार ही मेरा संसार था. तब इस पलार पर जहाँ तक नज़र जाती, दूर-दूर तक फैला विशाल खैरबन्ना ही नज़र आता था. कहीं-कहीं साहुड़, बबूल, नीम, जलेबी और झरबेरी जैसे कुछ पेड़... ऊँचे-ऊँचे टीले, उबड़-खाबड़ ज़मीन... बीच-बीच में कुछ गड्ढे-नाले... लम्बे-लम्बे कास, पटेर, खड़ही, सिकी, कुश-कतरा झाड़ और झौए के झुरमुट... अजब-गजब जानवरों से भरा एक अलहदा जंगली माहौल... उस माहौल में गांव-घर से पश्चिम की तरफ जानेवाले सारे रास्ते एकपेड़िया-खुरपेड़िया थे. यूं पूरब की तरफ जानेवाले रास्ते भी उससे बहुत भिन्न नहीं थे, बस थोड़े जंगलात उधर कम थे और वे रास्ते अक्सर गांव-ठांव से बाहर जाने में काम आते थे.
बहरहाल पश्चिम को और ख़ास कर मिरचैया पलार को जानेवाले रास्ते की अपनी ही विशेषता थी. मेड़ों, खेतों और बंसबिट्टी के बीच से गुज़रनेवाले उस रास्ते के दोनों तरफ काफी बड़ी-बड़ी घास फैली हुई होती थी. उन घासों में से बहुत से ऐसी थीं जिनका नाम हिंदी के शब्दकोशों में मिलना मुश्किल. एक कारीझांप थी जिसकी पत्तों से भरी झाड़ी बरसात में गजब रूप से बढ़ जाती थी. अदरक-हल्दी प्रजाति की अमादी और कचूर के पौधे भी उस रास्ते के किनारे भयानक रूप से फैले होते. वहीं केंचु (अरबी प्रजाति) के पौधे भी बिकराल रूप से जहां-तहां उग आते थे. और ऐसे परिवेश से गुजरते ये रास्ते बंसबिट्टी में तो और भी भयावह हो जाते...
दरअसल इन रास्तों पर दोनों किनारे से फैली घासों के बीच से कहीं भी साँपों के निकल आने की संभावना हमेशा बनी रहती थी. अक्सर पैरों के बीच से या पैर के ऊपर से साँपों का गुजर जाना आम बात थी. बंसबिट्टी के बीच के रास्ते में घासों के अलावा ऊपर से भी साँपों के टपक पड़ने की आशंका रहती थी. फिर बंसबिट्टी पार करते नीचे गब्बी होती थी जिसमें पानी और महीने भले कम या ना भी मिले लेकिन बरसात में बिकराल नदी ही हो जाती थी. और उस नदीनुमा गब्बी के पानी में मछली और साँपों में कौन कम कौन ज़्यादा यह कहना ज़रा कठिन होता...
खैर, इस गब्बी को पार कर गांव के पश्चिम स्थित पलार पर जैसे ही आप पहुंचते, मिरचैया पलार का खैरबन्ना साँपों, सनगोहों, सियार-गीदड-नेवलों से भरे और भयावह तो लगते ही, सुहावने भी कम नहीं लगते... उस खैरबन्ने में साँपों की इतनी आमद थी कि अक्सर रोज़ ही किसी न किसी संपेरों की टोली को सांप पकड़ते देखा जा सकता था. साँपों की संख्या भी कितनी थी कि संपेरे चाहे जितने भी पकड़ के ले जाते हों वो हर जगह सह-सह करते रहते थे. खेतों में, जंगल में, बांस में, घास में, गब्बी के पानी में, फूसघर के छप्पर में, कोडो-बत्ती में, बांस और जियल के खूंटों में... हर जगह जहां भी खोजो सांप ही सांप...
खैरों के झुरमुट में जहाँ दीबारी के भीण्ड ज्यादा होते और हल्की मिट्टी में कई बीवर, वहाँ सांप ज़्यादा पाए जाते. ऐसी जगहों को चारों तरफ से घेर के खोदा जाता तो उन्हें खूब सांप मिलता. यूं तो सेमार, हाड़ा, घेघना(केचली), कर्मी, लीध के साथ ही खड़हौड़या के डाभी-कास और पटुआ, राहड़(अरहर), अल्हुआ, कुरथी आदि की हरी-भरी फसलों के कोने-अंतरों में भी बहुतायत सांप होते थे, मगर वहां पकड़ना कठिन था. सो वे अक्सर खैरबन्ने में ही चढ़ाई करते.
खैरों के झुरमुट में जहाँ दीबारी के भीण्ड ज्यादा होते और हल्की मिट्टी में कई बीवर, वहाँ सांप ज़्यादा पाए जाते. ऐसी जगहों को चारों तरफ से घेर के खोदा जाता तो उन्हें खूब सांप मिलता. यूं तो सेमार, हाड़ा, घेघना(केचली), कर्मी, लीध के साथ ही खड़हौड़या के डाभी-कास और पटुआ, राहड़(अरहर), अल्हुआ, कुरथी आदि की हरी-भरी फसलों के कोने-अंतरों में भी बहुतायत सांप होते थे, मगर वहां पकड़ना कठिन था. सो वे अक्सर खैरबन्ने में ही चढ़ाई करते.
लेकिन उतने साँपों के बाबजूद तब संपकट्टी की घटनाएं कम हुआ करती थीं. अक्सर सांप पकड़ने वाले के साथ ही ऐसी घटनाएं होती थीं. या माल-मवेशी के साथ. आदमी सांप के साथ उतने असहज नहीं थे, जितने आज हैं.
हाँ, सांप निरंतर पकडे जाते रहे. मगर मैं आज तक ठीक-ठीक नहीं जान पाया कि इतने साँपों को ले जाकर वे क्या करते थे. कैसा व्यापार रहा होगा उन साँपों का?
आज सांप कम हैं, मगर सांप काटने की घटनाएँ पहले से ज़्यादा. एक ग्रामीण ने बताया कि आज ये सांप अति अल्प होकर बेजोड़े, असुरक्षित, अशांत होने के कारण आक्रामक हो गए हैं. अब सड़क हैं, तो उसके किनारे के घास-कन्दरों में ही इनका वास हो गया है और वहाँ से निकल हवा खाने के प्रयास में अक्सर गाड़ी के नीचे आकर जोड़ा में से एक बिछुड़ जाता है, तो दूसरा जिसको पाता है डंस लेता है...
इस परिवर्तनशील-असंतुलित ग्रामीण माहौल में जब सभी ग्लोबल हो जाना चाहते, सब के सब डियोड्रेंट-परफ्यूम-फेशवाश में डूब जाना चाहते, महंगे शेम्पू-साबुन-कंडोम, महंगे पैंटी-ब्रा-लंगोट के लिए जब सभी कुछ भी करने को तैयार हों, तो ऐसी चिंता में सर खपाना बेकार है... सब का अपना का जीवन अपना रास्ता...महंगे मकान, गाड़ी, लिबास, तड़क-भड़क और शानो-शौकत ही आज मुख्य है गाँव में भी...
Village is changing...and this change is indeed very unusual!we most of us who hailing from the rural terrains could sense this new estrangement..alas!even the priorities are escalating in wayward manner...Atul
ReplyDelete2011 अक्षेय का जन्म-शती वर्ष है,जिन्होंने शहर न जाने पर भी सांपो के जहरीले हो जाने पर सवाल करती कविता लिखी थी और अभी नाग-पंचमी भी हो गुजरा|सही मौके पर आया यह आलेख आपके खास गौरीनाथियन गद्य का ताजा उदाहरण है |बढिया |
ReplyDeleteसुंदर लिख रहे हैं। बधाई और यह क्रम बना रहे....
ReplyDeleteयह पोस्ट जिस पारा में खत्म होती है, वह मुझे सबसे अधिक खींच रही है। मैंने भी इस बार कोसी के एक गांव में बंसबट्टी में ओल्टो कार को पार्क करते हुए देखा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं मान लेना चाहिए कि अंचल की सांस्कृतिक छाया खो गई है। वह जिंदा है...
ReplyDeleteachhi shuruaat hai bhai.. jari rakhe
ReplyDeleteअनुभव में कुछ जुडता है बेशक.
ReplyDeleteपढ़ कर ऐसा लग रहा है कि मानो बाबा (ताऊ) किस्सा सुना रहे हैं और मैं आँखे बंद करके सुन रहा हूँ ......डर भी लग रहा है ..मजा भी आ रहा है | आपकी दो चार पोस्ट अभी पढ़ी .....मिथिला की संस्कृति और वहां के वातावरण को जीवित करती है आपकी लेखनी... | चाहता तो था कि मैथिली में लिखूं पर नेट पर मेरी सीमा शायद इतनी नहीं बढ़ पाई है | सापों की कम संख्या के बाबजूद सर्पदंश की घटना बढ़ने पर आपने जो तर्क दिया है उससे मैं सहमती जताता हूँ | आपके गद्य की तारीफ बहुत हो रही है ,तारीफ में सच में दम है वरना मुझे बाबा की याद नहीं आती | दिल्ली में रहते हुए भी आपने मुझे कोसी के पलार पर दौड़ा दिया है ,सच कहूँ गौरीनाथ जी कोसी के तट पर खड़ा होकर जो मजा कोसी को निहारने मैं मुझे आता है वही मजा मिरचैया पलार को पढने में भी आ रहा है |कुछ भी लिखें तो फसबुक पर जरुर लिंक दें .....हार्दिक बधाई और धन्यवाद
ReplyDeleteश्रीमंतजी, आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव के लिये आभार! फेसबुक पर सुचना जरूर मिलेगी! और सहज तरीके से सुचना-प्राप्ति का उपाय है कि नेटवर्क्डब्लाग के माध्यम से फ्लोवर बनने पर न्यूज़ मिलती रहेगी...
ReplyDeleteमैथिली में लिखना कठिन नहीं,अगर ठान लें...
सलाह-सुझाव बेझिझक देते रहें...