Wednesday 27 July 2011

उस सूखती नदी मिरचैया की याद में...

जब कालिकापुर में था तब हमारे पास सुकून के पल ज़्यादा थे. कलकल-छलछल बहती नदी मिरचैया मेरी प्रेमिका-सी थी और वह पलार हमारा अन्तरंग संसार जहाँ हम हर तरह से मस्त अनौपचारिक जीवन जीते थे. अभावों से भरा जीवन था, गाय-भैंस चराते खेती-बारी के साथ पढाई का समय कैसे निकालते थे अब सोचना तक कठिन लगता है. तब भीषण आभाव में भी हम इतने दुखी नहीं थे जितने आज तमाम महानगरीय सुविधाओं के बावजूद हम व्यस्त-परेशान होकर दुखी हैं ...और अपने दुःख के कारण को भी समझाने में जिस कदर असमर्थ हैं, यह तो और भी विचित्र और चिंताजनक बात है...
पिछले दिनों जयपुर में था. जयपुर एक राज्य की राजधानी है .आधुनिक नगरी. वहां भी जीवन बदल रहा है, मगर वह नगर दिल्ली की तुलना में कुछ कम संकरा है ... यह फर्क लम्बे समय तक बना रहेगा? यूँ तो वहां का साहित्यिक माहौल भी बेहतर है ... वहां के सक्रिय युवा रचनाकारों में मेलमिलाप, प्रेम, टीम भावना के साथ स्वस्थ्य  रचनात्मक माहौल मोहता है ... जब भी जयपुर जाता हूँ तो आत्मीय भावों से भर जाता हों, मन प्राण को सुकून मिलते हैं ... प्रायः यही बात रही होगी कि इस बार जयपुर से लौटते में अपने उन दिनों के कालिकापुर पलार से लौटने जैसा लग रहा था... उस दिन मौसम भी ज़रा भीगा था, बदरी छाई थी, पुरवैया गाछ-वृक्षों को झकझोरती बड़ी शान से बह रही थी और मेरा मन मुझे जैसे एसी वोल्वो बस से दूर कालिकापुर में मिरचैया पलार पर लिए जा रहा था ... मैं बस में होकर भी मिरचैया के कछार में था...
क्या यह सुकून दिल्ली में संभव है?
 नहीं , वो सुकून यहाँ  नहीं मिलेगा, मगर वो कालिकापुर भी अब वैसा नहीं मिलेगा... कालिकापुर भी अब बदल गया है. मैंने जिस कालिकापुर की कोमल भावना में पगी चर्चा की है, वह अब वहां भी नहीं है... बालपन में अभावों से भरी मेरी ज़िन्दगी को संवलित करनेवाला मेरा वह गाँव मर चूका है ... कोसी की भीषण बाढ़ के बावजूद नदी मिरचैया मरणासन्न है, जीवन में जैसे प्रेम सूख रहा वो नदी भी सूख रही है ...
उस सूखती नदी की याद में और अपने मरते गाँव के गम में जो दुःख भरी यादें हैं उन्हें बेतरतीव, बेधड़क, बेबाक आगे भी रखता रहूँगा ... यह ब्लॉग इसीलिए शुरू किया है... आप सब से सलाह-सुझाव की अपेक्षा  रहेगी...