गौरीनाथ
यूं ये जिद्द/ बड़ी खराब है/पर यही, /यही तो ज़िंदगी का बजता हुआ रबाब है...
अरुण प्रकाश अद्भुत जीवट इंसान थे. उनके पास कुछ बहुत खूबसूरत ज़िद्दें थीं.
जिनके पास कोई जिद्द न हो वह और कुछ भी हो सकता है, एक अच्छा-प्रतिबद्ध
रचनाकार-कलाकार तो नहीं ही हो सकता है. यह जिद्द ही थी कि वे जमी-जमाई नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आए. अरुण प्रकाश के शब्दों में कहूं तो, ''लोकप्रिय धारणा है कि कमलेश्वर
जी ने मेरी सरकारी नौकरी छुड़वा दी, पत्रकारिता में ले आए. और यह उन्होंने बुरा किया. दरअसल कमलेश्वर जी को सहज
उपलब्ध खलनायक मानकर कोई भी दोष उनके मत्थे मढ़ देते हैं... मैंने अपनी जिद्द के
कारण सरकारी नौकरी से मुक्ति ली, मेरी जिद्द देखकर उन्होंने मुझे
पत्रकारिता में मौका दिया और कसकर काम लिया. राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय विषयों से
लेकर व्यापार-सम्पादन जैसा टेढ़ा काम तक करवाया. जिसके कारण पत्रकार-बिरादरी ने
मुझे अपनाया. वरना पत्रकारिता में आलम यह है कि साहित्य से जुड़े पत्रकार अपने को
सवर्ण समझते तो शुद्ध पत्रकार अपने को सवर्ण.... लम्बी बीमारी के बाद उठा तो पीठ
पर कूबड़, हाथ में बैसाखी थी. मेरे
किशोरोचित उत्साह पर विकलांगता की सिल चढ़ गई थी. किसी ने कहा कि तैरने से तुम ठीक
हो जाओगे. बस जिद्द चढ़ गई. बूढी गंडक में धारा के विरुद्ध तैर-तैरकर मैंने अपना
शरीर सीधा कर लिया. वैसाखी छूटी और मेरे पास काम चलाऊ शरीर फिर आ गया. जिद्द को
उपहास का सामना करना पड़ता है लेकिन यदि जिद्द आपकी क्षमता के अनुकूल हो तो उपहास
करतल ध्वनि में बदल जाता है.''
अरुण प्रकाश जी से मेरा प्रथम परिचय उनकी 'जल प्रांतर' कहानी के माध्यम से हुआ, लेकिन अभिन्न और पारिवारिक हुए
हम दिल्ली-रहवास के साथ. 1995 से. मैं शालीमार गार्डेन में रहता रहा हूँ, वे दिलशाद गार्डेन में रहते थे.
दिलशाद गार्डेन से शालीमार गार्डेन की दूरी मेरे लिए आज भी पैदल की है. यूं रिक्सा
से भी आते-जाते, लेकिन पैदल में जो सहजता, सुविधा और मज़ा है उसकी बात ही
कुछ और... इस रास्ते में कुछ चाय के ठीहे और पान की दुकानें हैं जहां अरुण जी के
साथ सुकून से बतियाते इस परिक्षेत्र के लोगों से उनके जुड़ाव-लगाव की गहराई
भांपते-महसूसते मैं अपने लिए एक परिचित-सी जगह बनाने की कोशिश में था. दिलशाद
गार्डेन से लगे सीमापुरी,
शहीद
नगर, शालीमार गार्डेन इलाके
की हरेक गली से अरुण जी का गहन जुडाव-लगाव रहा था. सिर्फ चायवाले नहीं, रिक्सावाले, सब्जीवाले, फलवाले, नाई-धोबी, मोची, बढई, दरजी से लेकर दैनंदिन जीवन में ज़रुरत की चीजों या
कामों के सिलसिले मिलने-जुलनेवाले हरेक तरह के पेशे के लोगों से उनका आत्मीय
रिश्ता था. यह आत्मीय रिश्ता सतही स्तर पर नहीं था. अरुण जी अपने से जुड़े हरेक
व्यक्ति के बारे में तफसील से और मुकम्मल जानकारी रखते थे. किनके कितने बच्चे हैं, लडके-लड़कियां क्या करते, कहाँ-कहाँ उनके रिश्ते हैं और
क्या-क्या खाशियतें.... ऐसी तमाम जानकारियाँ. इनमें
से कई ऐसे थे जिनसे वे गले मिलते हालचाल लेते. शहीद नगर के एक मोची-मित्र से
मिलाते हुए उन्होंने उनका परिचय दिया कि ये इतने अच्छे गायक और कलाकार हैं कि
फिल्म में चांस पाने को घर बेचकर मुंबई चले गए. जब वहाँ इनकी कला को पहचानने वाले
नहीं मिले और पैसा ख़त्म हो गया तो फिर यहाँ आए. अब इनकी कलाकारी इन जूतों की
बनावट और तराश में देख सकते हो. इनकी दूकान में सिर्फ खुद के बनाए जूते ही
मिलते...
शुरू-शुरू में मैं कई बार रोमांचित-विस्मित होता कि अरुण जी के परिचय और
अनुभव का दायरा कितना बड़ा है! होमियोपैथिक दवाइयों के जितने भी दुकानदार इस इलाके
में थे सब से उनका परिचय था. डाकिया हो या बिजली मिस्त्री, डाक्टर हो या टैक्नोक्रेट, ऑटो रिक्सावाले हो या ट्रक
ड्राइवर-- सब से उनका आत्मीय और सघन जुड़ाव था. 'फिर मिलेंगे' का वीर सिंह सिर्फ कल्पना से
नहीं पैदा हुआ है. 'विषम राग' की कम्मो की दुनिया को गहराई से
समझे-जाने बगैर उसकी ऐसी कहानी नहीं लिखी जा सकती. 'कम्मो थूककर नहीं चाटती!'अरुण प्रकाश अपने पात्रों के
अन्तरंग-बहिरंग को जाने बगैर उसकी कहानी नहीं लिखते थे...
अरुण प्रकाश गहरे अर्थों में भारतीय लोक-मानस के चितेरे कथाकार हैं. उनकी
कहानियों में विषयों की जितनी विविधता है उतनी अन्यत्र दुर्लभ. इस बाबत उनका मानना
था कि जहाँ एक तरफ हमारे समाज में विविधता प्रचुर है, वहीं उनकी समस्याओं का कोई अंत
नहीं इसलिए लेखक को चाहिए कि दुहराव से बचते हुए वह अधिकाधिक जनता की अधिकाधिक
चिंताओं को रचना में प्रभावी ढंग से उठाए. इस आसंग वे भीष्म जी को आदर्श मानते थे.
उनकी तरह ही उन्होंने न केवल बार-बार विषय-परिवर्तन किए बल्कि बार-बार शिल्पों को
भी तोड़ा-तराशा. 'बेला एक्का लौट रही हैं', 'भैया एक्सप्रेस', 'जल-प्रांतर', 'तुम्हारा सपना नहीं', 'विषम राग', 'हिचक', 'आख़िरी रात का दुःख', 'गज पुराण' आदि हर एक से दूसरी कहानी के बीच
विषय से भूगोल तक का जो बदलाव अरुण जी ने संभव किया है, ऐसा हिन्दी कहानी में पिछले
35-40 वर्षों में और कहीं नहीं मिलेगा.
अरुण प्रकाश ने कविताएँ और व्यंग्य भी
लिखे. एक प्रखर पत्रकार होने के नाते गैर-साहित्यिक वैचारिक लेखन और अनुवाद भी कम
नहीं किए. 'रक्त के बारे में' कविता-संग्रह छापा. 'कोंपल कथा' उनका चर्चित उपन्यास है. विद्यापति
पर 'पूर्व राग' उपन्यास अपूर्ण रह गया. सात
कहानी- संग्रहों और आठ अनूदित पुस्तकों के बाद वे आलोचना की तरफ मुड़े भी तो पूरी
तैयारी से और ऐसा विषय लेकर जिस पर हिन्दी में सबसे कम काम हुआ है. कथेतर गद्यों
की आलोचना के बहाने उन्होंने फ़ार्म और जेनर को लेकर 'गद्य की पहचान' जैसी पुस्तक हिन्दी को दी. अभी उनकी दो और आलोचना पुस्तकें आनी हैं.
असंकलित कहानियों-व्यंग्यों-लेखों की भी चार-पांच किताबें और हो सकती हैं.
बहरहाल, मैं अखबार में काम करता
था तब भी और जब 'हंस' में आया तब भी-- आफिस जाने और घर
लौटने के मेरे रास्ते मात्र ही नहीं, लगभग कहीं भी घर से बाहर जाने और लौटने के रास्ते अरुण जी के घर की तरफ से
गुजरते थे. इस कारण भी हमारी मुलाकातें ज्यादा होती थीं. अक्सर हम कहीं जाते
अलग-अलग भी मगर लौटते साथ थे और इस क्रम में उनके घर या आसपास के किसी चायवाले
ठीहे पर हम घंटों जम जाते थे. हम जहां भी जमते उनकी दुकान बढ़ाने के बाद ही वहाँ से
हिलते. जब उनके घर बैठते तब भी वहाँ से निकलते-निकलते अक्सर रिक्सेवाले अपने घर जा
चुके होते. असल में अरुण जी के घर हों या कहीं और, कभी बात एक चाय पर ख़त्म नहीं
होती थी. कई चाय और मट्ठी,
फेन-रस
या नमकीन-दालमोठ के साथ हमारी बातचीत अंतहीन चलती
रहती थी. हमारी बातचीत के विषय साहित्यिक कम ही हुआ करते. अक्सर सामाजिक
समस्याएँ और मनुष्य की ज़िंदगी के सुख-दुःख ही हमारी चर्चाओं में होतीं. फसल-चक्र, अनाज के किस्मों और व्यंजनों के
अलग-अलग स्वाद को लेकर उसके अतल तल तक जाते. ''कलछुल की टकराहट के बावजूद उसे
भुने प्याज की गंध अच्छी लग रही थी''(छाला) जैसी गहरे इन्द्रीयबोध से संपृक्त पंक्तियाँ कोई यूं ही नहीं लिख सकता.
उनकी रचनाओं में पात्र-परिवेश और स्थितियों से संदर्भित विवरण(डिटेल्स) पर्याप्त
होते हैं और ये आम लोगों के जन-जीवन से होते हैं. यूं वे कहते हैं, ''मिथिला की बातें, सन्दर्भ, जो भूल जाता हूँ, उसे बेहिचक बाबा नागार्जुन से
लेता हूँ. मसलन मिथिला के आमों, मछलियों की वेरायटी के बारे में कहाँ से जानकारी दूं? नागार्जुन के बगीचे और पोखर से
चुराने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.'' लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं. सिमरिया की गंगा और बूढी गंडक किनारे के इस मैथिल
लेखक के पास जितनी विविधतापूर्ण जानकारी है उतनी अन्यत्र दुर्लभ. बाबा सिर्फ
वैरायटी और स्वाद बताते,
अरुण
प्रकाश उनके रासायनीक गुणों को बेहतर जानते हैं-- उन बस्तुओं के तात्विक गुणों, खूबियों-खामियों के साथ ही उसके
विपणन और व्यापार को भी उद्घाटित करते हैं. अरुण प्रकाश की
आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक समझ ऐसी थी की वे सड़क-निर्माण और जल-प्रबंधन पर भी कुशल
इंजीनियर की तरह राय रखते थे. समाजशास्त्री-अर्थशास्त्री की तरह सिद्धांतों की
चर्चा भी वे प्रसंगतः करते थे. वे जिस तरह माछ, मखान, पान या गेंहू के कारोबार को
समझते थे उसी तरह जींस, मिठाई और कास्मेटिक से
जुडी बाज़ार-व्यवस्था के कुशल जानकार और विश्लेषण में सक्षम थे.
अरुण जी से मेरा सम्बन्ध बिलकुल घरेलू था.
वर्ष 2003 में जब मैं डेंगू से पीड़ित हुआ तो वे दिन-रात एक किए खड़े थे. एक
दफा मेरा बेटा बीमार पड़ा तो आफिस से मेरे लौटने से पहले उसको लेकर वे अस्पताल
पहुँच गए थे. ऐसे अनेक प्रसंग है जिन्हें लिखने लगूं तो पूरी किताब बन जाएगी... कहने
का आशय यह कि उनके जाने से मैंने अपना आख़िरी अभिभावक खो दिया है... अब दिलशाद
गार्डेन, शालीमार गार्डेन, शहीद नगर, सीमापुरी के इलाके के वे ठीहे
बार- बार उनकी कमी महसूस कराते रहेंगे जहां कभी हम साथ-साथ होते थे... बिहार और वहाँ से आकर इस इलाके में बसे लोगों के सम्बन्ध समीकरण सुलझाते समय भी उनकी कमी खलती रहेगी...
असल में अरुण प्रकाश जिस इलाके से आते हैं वह कठिन श्रम के बावजूद
आर्थिक-संघर्ष में जीने वाले लोगों का इलाका है. वहाँ सामाजिक-राजनीतिक सजगता काफी
है. अरुण जी के पिता समाजवादी राजनीति में सक्रिय थे और मां स्कूल-शिक्षिका थीं. वह सात साल के
थे जब उनकी मां गुजर गई. जब किशोरावस्था में पहुँचे तभी राजनीतिक ईर्ष्या के कारण
उनके पिता को कार से कुचलकर मार डाला गया. बाईस वर्ष की अवस्था में उन पर पूरे
परिवार का बोझ आ गया. कहने को सांसद के बेटे थे, मगर दो वर्ष बाद ही एम.पी. फ़्लैट
खाली कर सर्वेंट क्वार्टर में आ गए थे. अरुण जी के शब्दों में उनकी स्थिति कुछ इस
तरह थी, '' सामर्थ्य की
लक्ष्मण-रेखा खिंचकर गरीबी मनुष्य को छोटा कर देती है. बमुश्किल पढाई हुई, ट्यूशन के चक्कर, पिता के खाते-पीते
मित्रों/रिश्तेदारों के सहारे बड़ा हुआ. मेरे परिवार के लोग सम्मान-स्वाभिमान को
गरीबी से ज्यादा प्यार करते थे. सारे अमीर मूल्यहीन दिखते थे. इन निम्नवर्गीय
गरीबी और अपने मूल्यों से केकड़े की तरह कीचड़ से चिपके रहते थे. हायर सेकेंडरी के
परीक्षा के दिन थे. अप्रेल की तेज गरमी में कोलतार की सड़क पर नंगे पाँव परीक्षा
देने जाता था. तलवों में छाले पड़ गए. रहम खाकर मेरे पिता के एक मित्र ने नई चप्पल
करीद दी. वह मेरे जीवन की पहली चप्पल थी. नई चप्पल ने काट खाया. तभी जाना की गरीबी
से उबरने में भी छाले पड़ते हैं.
लक्ष्मण-रेखा छलांगना तो बस बुझते दिए के बश की बात है.''
तमाम जद्दोजहद के साथ एक संघर्ष भरी
ज़िंदगी जीते हुए अरुण प्रकाश ने लगातार लिखा. जैसी जिन्दगी चाही वैसी बनाई. नौकरी
छोड़ पत्रकारिता में आए. पहले ''जागरण'' फिर ''सहारा'' और फिर कई अखबार-पत्रिकाओं से
होते वर्षों फ्रीलांसिंग भी की. तरह-तरह
के अनुवाद, स्क्रिप्ट-राइटिंग, धारावाहिकों के लिए लेखन, फिल्मों-टेलीफिल्मों के लिए
लेखन करते पत्रकारिता-संस्थानों में पढ़ाया
भी खूब मन लगाकर. फिर साहित्य अकादेमी की पत्रिका में आए तो वहाँ भी अपनी छाप छोड़ी. वीना भाभी हर कदम पर
उनके साथ रहीं. बेटे मनु प्रकाश और बेटी अमृता प्रकाश भी अब जाब में हैं. एक तरह
से अब उनकी इत्मीनान से लिखने की उम्र और स्थिति बनी थी. इधर लगातार लिखने में
सक्रीय थे. विद्यापति के जीवन पर ''पूर्व-राग'' उपन्यास और कई नए विषय उठा रहे थे. गद्य-आलोचना में
अछूते विषयों-क्षेत्रों पर सक्रीय थे कि सांस की यह बीमारी लंग्स को डैमेज करती
धीरे-धीरे गंभीर हो गई.
लगभग चार-पांच साल बीमार रहे. शुरू में कुछ-कुछ घंटों के अंतर पर आक्सीजन
लगाने की जरूरत पड़ती थी फिर चौबीसों घंटे आक्सीजन लगा रहने लगा. फिर कार्बन
डाक्साइड निकालने के लिए बाई-पाइप की जरूरत भी होने लगी. और फिर आई.सी.यू. और घर
की आवाजाही में घर से ज़्यादा आई.सी.यू. में ही रहने लगे. महंगे इलाज के इन वर्षों
में भी उनके चहरे पर कभी उदासी नहीं आई. इस दौरान हिन्दी समाज के अनेक महामनाओं ने
चाहा कि थोड़ा-बहुत दान-अनुदान देकर दैहिक मृत्यु से पहले अंतरात्मा को मारा जाए, लेकिन अरुण प्रकाश जी और उनके
साहसी पुत्र मनु प्रकाश ने हिम्मत नहीं हारी. ''ना'' कहानी की नायिका की तरह हरेक
अनुदान के प्रयास और दया को उन्होंने ना कहा. घर बिक गया तो फिर होगा, इस विश्वास पर स्वाभीमान के साथ
खड़े रह जमीर पर खरोच नहीं आने दी. स्वाभीमान से भरे अरुण प्रकाश के इस साहस और
जिद्द को सलाम करने से पहले इतना कहना चाहूंगा कि हिन्दी में ऐसा जिद्दी, साहसी और संघर्षचेता शायद ही फिर
हो. मुझे प्रसन्नता है कि मुझे उनका स्नेह मिला.
नि:संदेह वह अपनी ही तरह के जिद्दी थे। इस ज़िद में भौतिक रूप से उन्होंने जो भी कुछ खोया हो, आत्मिक रूप से कुछ नहीं खोया। मैं बहुत बार उनसे नहीं मिला, लेकिन मुझे प्रसन्नता है कि मैं उनसे मिला।
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