Wednesday 5 October 2011

दास्तान एक बस्ती की जो उजड़ गई..

मेरा घर मिरचैया पलार से पूरब लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर था जो सवर्णों की बस्ती थी और मिसरान कहलाती थी! अगल-बगल झापट्टी, ठकुरपट्टी, यादवटोल आदि जैसी बस्तियां थीं! ये बस्तियां कोसी की अनेक कटान के कारण कई बार उजड़ी-बसी थीं! और उस क्रम में आख़िरी बसाव लगभग 1940-1950  के आसपास हुई थी! लेकिन इन बस्तियों की अपेक्षा कालिकापुर गाँव स्थित मिरचैया पलार के केन्द्र में कलकल-छलछल करती बहती नदी मिरचैया के एकदम किनारे लगी जो बस्ती कुछ समय बाद बसी थी वह कियटटोली कहलाती थी! इसी कियटटोली से लगे घाटों-किनारों पर मुझ जैसे उस वक़्त के पलारजीवी का जीवन चलता था! गाय-भैसों को मिरचैया किनारे छोड़कर खेलते-धुपते जब-तब हम कियटटोली चले जाते थे! नदी के बदले कुंए का पानी पीना हो तो अक्सर हम उधर ही जाते थे! कभी किसी के घर से आये खाने में नमक कम हो जाते तो उन्हीं के घर के नमक से अपनी जिह्वा के  स्वाद को तृप्त कर पाते थे! चने-खेसाड़ी-गेहूं के होरहे या मछली-केकड़े पकाने-बनाने के क्रम में ऐसी कई चीजों की जरूरत पड़ती थी जिसके लिए हम उनके आँगन-घर अपने ही घर की तरह बेधड़क घुस जाते थे! ऐसे अनगिनत काम, ऐसी अनगिनत ज़रूरतें थीं हमारी जो उस बस्ती से पूरी होती थीं!...

     उस बस्ती से हम बच्चे का ही नहीं हमारे वुज़ुर्गों का भी स्वार्थ जुड़ा था! हमारे खेतों में काम करने मजदूर-मजदूरिनें वहीँ से आती थीं, हलवाहे भी वही लोग थे! टेहलुक, चरवाहे, संगी-साथी तो थे ही वहां बतकुटौअल के अड्डे भी जमते थे! कई तरह के खेल की मुफीद जगह और कई तरह के ज्ञान के अनौपचारिक केंद्र होने के साथ बहुत सारी उम्मीदों और हसरतों को वहीं पंख मिले थे!

     मेरे हलवाहे रामसुन्नर कामत हम सब के रामसुन्नर भाय थे! उनकी पत्नी को बेटी लाली के नाम से जोड़ के ललिया माय कहा जाता जबकि हमसब की मुंहलगी भाभी थी वह! हंसी-मजाक और चुहल में तो उसका जवाब नहीं! अश्लील से अश्लील बातें और किस्से वो बेधड़क और निःसंकोच बड़े ही सहज भाव से कहती-सुनाती बड़ों को मनोरंजित करती तो छोटों को परिपक्व-ज्ञानवान-समझदार बनाने के साथ-साथ कामशास्त्र के देसी संस्करण से समृद्ध जवान बनाने में भी मदद करती थी... लेकिन उसके चरित्र को लेकर कभी किसी ने ऊँगली तक नहीं उठाई, ना उसकी इमानदारी को लेकर! वह ऐसी आदर्श श्रमिक महिला थी कि उनकी यश-चर्चा आज भी पलारजीवीयों के बीच सर्वत्र है! उनके बेटे भोला और बेचन जिनको भोलबा-बेचना पुकारा जाता, हमारे संगे-साथी थे! सुना है कि आजकल दोनों गुडगाँव में एक अच्छी कम्पनी में नियमित मजदूर हैं! निश्चित ही कि आज वो बेहतर जीवन जी रहे होंगे और उस मिरचैया पलार को भूले नहीं होंगे, लेकिन यह ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि वो मिरचैया पलार से उस समूची बस्ती कियटटोली के उजड़ जाने को लेकर दुखी भी होंगे या नहीं... 

लेकिन यह एक दुखद सच है कि आज वहां वो कियटटोली बस्ती नहीं है... बिलकुल ही नहीं... एक घर भी नहीं...

1960  के आसपास बसी थी वो बस्ती...  कोसी का छाडन था वो इलाका... उधर से कभी कोसी गुज़र चुकी थी... हम लोगों की बस्ती ही 1950 के आसपास बसी थी, वो कियटटोली उसके करीब दस साल बाद आबाद हुयी थी! पहले सरजूग कामत, नूनूलाल कामत, बुच्ची कामत सपरिवार आये थे, अपने आठ में से पांच भाई को फतेहपुर में छोड़ कर तीन भाई यहाँ ! फिर रामसून्नर कामत आये कुनौली से... उनकी पत्नी ललिया माय फतेहपुर की थी सो वो कुछ ज़मीन दान में पा गयी तो उनके परिवार भी यहीं आ बसे... फिर आये करजाईन से सुबकी कामत अपने बेटे हरिलाल कामत के परिवार के साथ और देखते ही देखते कालिकापुर के मिरचैया पलार पर कियटटोली नामक एक मुकम्मल बस्ती आबाद हो गयी थी...

लेकिन इस बस्ती का अस्तित्व 50 साल भी कायम नहीं रह पाया! मात्र 35-40 वर्ष में उजड़ गयी वो बस्ती... लेकिन इतने ही वर्षों के इसके इतिहास में झांकना और उसकी संक्षिप्त दास्तान बयान करना आज मुझे जरूरी लग रहा है, खास कर तब तो और अधिक जरूरी लग रहा है जब मैं मिरचैया पलार की गाथा लेकर आपके सामने आ रहा हूँ...

दोस्तों, इस बस्ती की सही-सच्ची दास्तान बताने के लायक और सही हक़दार तो उस बस्तीबासी ही हैं... मगर उनके लिए जब हमारी व्यवस्था और सरकार ने कुछ किया-सोचा ही नहीं और उनमें से किसी को साक्षर होने का मौका ही नहीं मिला तो क्या करेंगे? मैं कामना करता हूँ कि उनमें से किसी के बच्चे पढ़-लिख के इस काबिल हो और अपने पुरखे के ज़ुबान से सुन के उस कथा को लिखे... तत्काल उनके संग-साथ से जो जाना उतना कहकर उनके नमक का क़र्ज़ थोड़ा भी अदा करूं तो सही...

मैं जब पांच साल का था तभी से उस बस्ती और बस्तीवासी से गहन लगाव था! रामसुन्नर के परिवार के अलावा नूनूलाल के घर के लोग भी हमारे यहाँ से जुड़े थे! वह 1976 का साल था जब नूनूलाल के बड़े बेटे ब्रह्मदेव ने हमारे यहाँ चरवाही  शुरू की! 1981 के बाद जब वह मेहनत-मजूरी और हलवाही लायक हो गया तो उसकी जगह उसके छोटे भाई धरमदेव ने चाकरी शुरू की! इसी तरह कुछ ही समय बाद उनके सबसे छोटे भाई करमदेव ने काम पकड़ लिया! करमदेव के एक पैर में ज़रा तकलीफ थी जिस कारण उसको लंगड़ा भी कहता था कोई-कोई! जब करमदेव मेरे यहाँ काम करता था तभी कुछ वक़्त गाँव-घर में हलवाही-मजूरी करने के बाद ब्रह्मदेव-धरमदेव ने दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ी थी!

दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ने वाले इन दोनों भाइयों की तरह उस टोले से और भी पांच-सात युवक हुए! उनकी बाहरी कमाई से घर की हालत प्रायः सबकी ज़रा बेहतर हुई थी! और तब जीवन के ढर्रे भी ज़रा बदलाव की तरफ अग्रसर था कि एक घटना हो गयी...

उस साल उस टोले में एक लड़की की शादी हुई थी... उस शादी में पहले की शादियों की अपेक्षा कुछ ज़्यादा मान-सम्मान और अच्छे खान-पान से बारातियों और अतिथियों का स्वागत हुआ था! यूं आज की तुलना में वो कुछ भी ना था, फिर भी लोगों की आँख पे चढ़ गया टोला!फिर उस टोले में पांच-छः लडकियां अचानक से दिखने लायक दहलीज पर पहुँच गयी थी! वो बस्ती थी भी बांकी तमाम बस्तियों से काफी अलग और दूरी पर... कि एक रात कुछ  भले मानुस पहुंचे वहाँ और बोले कि बकरा काटकर मांस-भात खिलाओ... जब तक खाना बना वे गांजा पीते घर-आँगन में ताँक-झाँक करते रहे... खाने के बाद लड़कियों की सेवा जबरन ले ली उन्होंने और चलते-चलते धमकी भी! फिर ऐसा अक्सर होने लगा और एक दफा माल-मत्ता भी साफ़ कर गया...

वे श्रमजीवी थे और श्रम के बल कहीं भी गुजारा कर सकते थे तो फिर यहाँ इज्जत क्यों नीलाम करते? इज्जत उन्हें इस गाँव और धरती से ज़्यादा प्यारी रही होगी... इसलिए इस गांव-धरती का मोह त्याग दिया उन्होंने धीरे-धीरे... पहले खेड़िया और उसकी एक और बहन सहित पूरे परिवार को लेकर सुबकी-हरिलाल गए एक रात अचानक करजाईन की तरफ ... फिर उसी तरह रामसुन्नर भाई भी अपने कुनबे के साथ एक रात निकल गए कुनौली, अपने पुराने ठिकाने की ओर... नूनूलाल मर चुके थे, उनके बच्चे ब्रह्मदेव, धरमदेव, करमदेव, उसकी बहनें और माँ  फतेहपुर ही लौटे मगर उनका कमाई का क्षेत्र है आज भी दिल्ली...

और इसी तरह धीरे-धीरे पूरा कुनबा बिखर गया और वो बस्ती इतिहास में चली गयी...

आज जब मैं अपनी प्रेमिका मिरचैया को याद करता हूँ तो उस क्रम में उस बस्ती के वे सारे लोग मुझे याद आ रहे हैं जिनसे सालों-साल तक हमारा लगाव-जुड़ाव रहा था... उनके संग-साथ की स्मृतियाँ, उनके पर्व-त्यौहार, उनके गीत-प्रीत, उनके घर के आगे-पीछे के पेड़-पौधे-गाछ-बांस, कुंआ से लेकर नहर किनारे की सड़क तक ... सब-के-सब
यूं याद आ रहे जैसे ये सब कल तक थे ही और यहाँ से लौट के गाँव जाउंगा तो यथावत मिलेगा...

खैर वो बस्ती भले ना मिले, उन लोगों से मिले प्रेम-अपनत्व उनके नमक-पसीने के क़र्ज़ के समान हमेशा याद आते रहेंगे और उस सम्बन्ध की उष्मा कभी कम ना होगी...

4 comments:

  1. याद करने से कितनी चीजें सामने दौड़ने लगती है। आपका लिखा पढ़ा तो कई यादे हमारी भी मेमोरी लेन में आ गई.

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  2. "यहाँ से लौट के गाँव जाऊंगा"- कितना सम्मोहन है इस वाक्य में!

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  3. एक बस्ती के उजडने का दर्द सब नहीं समझ सकता... यहाँ कही गई बातों और तथ्यों से ज़्यादा अनकही बातों का मर्म समझने की ज़रूरत है... अनकही तक जो पहुँचेगा उसके लिये ही है ये दर्द की इबारत....

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  4. बस्ती के उजड जाने का दर्द सहना आसान नहीं

    बशीर बद्र ने कहा भी है

    लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
    तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में

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