आगे के सफर में मैं अपना कर्ता-कर्म, आपादान-सम्बोधन सबकुछ खुद था।
कुछ समय आवारगी में गुजरे। फिर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से जुड़े, दुनिया-जहान देखे, कुछ अलग-अलग तरह के लोगों से मुठभेड़ें हुईं। गाँवों, शहरों और लाइब्रेरियों की खाक छानते मैं साहित्य की तरफ झुक रहा था कि मेरा अनन्य मित्र शम्भु साहित्य-रोग दूर करने आ गया। तब हम पटना में थे। शम्भु ने सण्डे मेल में छपे कमलेश्वरजी के 'आधारशीला’ सीरिज के कुछ संस्मरण दिखाते कहा, ''ले, इसको पढ़! समझ में आ जाएगा कि साहित्य का क्षेत्र कितना खराब और कठिनाइयों से भरा है। ये पढ़ लेगा, तो फिर साहित्य का नाम भी नहीं लेगा!...’’
मगर हुआ उलट। एक कहानी पर पहले से रियाज कर रहा था, एक कहानी और पकने लगी! सारी रात जगता रहा। सुबह होते निर्णय लिया कि अब कुछ और सोचने में वक्त नहीं गँवाना है। इस दुनिया में मुझसे ज्यादा दु:खी लोगों की कमी नहीं है। मेरा दु:ख उनमें अनेक से छोटा है। सो अपनी भूमिका जानना-समझना ही बेहतर होगा।...
मगर हुआ उलट। एक कहानी पर पहले से रियाज कर रहा था, एक कहानी और पकने लगी! सारी रात जगता रहा। सुबह होते निर्णय लिया कि अब कुछ और सोचने में वक्त नहीं गँवाना है। इस दुनिया में मुझसे ज्यादा दु:खी लोगों की कमी नहीं है। मेरा दु:ख उनमें अनेक से छोटा है। सो अपनी भूमिका जानना-समझना ही बेहतर होगा।...
तभी कुछ सहपाठियों के सुझाव पर सहरसा में ट्यूशन से खाने-रहने लायक आमदनी की सम्भावना देख वहाँ गया, तो करीब चार वर्ष वहीं रह गया। भूख से लड़ते वहीं से मैंने ग्रेजुएशन किया और लेखन को भी नियमित। पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की बिक्री सहित कई तरह के काम करने पड़े, मगर सहरसा में मैं टिका तो गणित-ज्ञान की बदौलत प्राप्त ट्यूशनों और विभिन्न तरह की गतिविधियों में सक्रिय मित्रों के घृणा और प्रेम सहते ही।
बहरहाल, सहरसा रहते मेरा जुड़ाव सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में बढ़ गया। कई धुरन्धर मार्क्सवादी मिले। वहीं एक साक्षरता अभियान से जुड़े संगठन में भी कुछ समय काम करने का मौका मिला। उससे और कुछ मिला हो या नहीं, जन और समाज को सीधे और व्यापक रूप में जाना-समझा। लगातार भटक-भटककर गाँव-गिराँव से जो अनुभव बटोर रहा था, वह मुझे न सिर्फ माँज रहा था, बल्कि परिपक्व भी बना रहा था। फिर तो रफ्ता-रफ्ता अँधेरे में भी राह नजर आने लगी। एक सोच बनने लगा।
सोच में आये इस बदलाव का असर मेरे व्यवहार और कर्म पर भी पड़ा। निजी जीवन में दिखावे और कर्मकांड से मुक्त था मैं। लेकिन मेरी यह मुक्ति ज्यादातर लोगों को स्वीकार्य नहीं थी।
साल-दो-साल बीत गये। गुजरे वक्त की हवा-पानी ने कुछ धूल साफ की। गाँवघर से औपचारिक-सा जुड़ाव फिर बना। लेकिन जहर-बुझे कँटीले तारों से हुआ था यह जुड़ाव! उस पर मेरा नया अवतार गाँवभर के लिए असह्य था। फिर जल्दी ही उन्हें गुस्से का इजहार करने के मौके भी मिलते गये। मेरे दो चाचा मरे कुछ ही समय के अन्तर पर। नख-बाल से लेकर जितने भी कर्मकांड हुए, मैं किसी में शरीक नहीं हुआ। फिर मेरी एक चाची मरी। 1 सितम्बर, 1991 को मेरे पिता की मृत्यु हुई। मैंने अपना वही रवैया कायम रखा। इस पर मेरा तीव्र विरोध हुआ और परिवारवाले ने एक तरह से बहिष्कृत कर दिया। फिर एक विधवा से ब्याह करने का अफवाह भी फैला। फिर समान गोत्र में इश्क-लड़ाने की बात-कथा का रस लिया गया। कविता न 'करने’ के बावजूद गाँव-जबार में 'कबी’ तो मैं कहलाता ही था, अचानक पागल भी घोषित कर दिया जाऊँगा इसकी जरा भी कल्पना नहीं थी! मगर सचमुच में वर्षों तक मैं 'पगलबा’ कहलाया जाता रहा। बाँधकर मुझे काँके (राँची) पहुँचाने की योजना भी बनी।
मैं अपनी आँखों अपनी लाश श्मशान जाते देखता रहा। जो लड़की कभी दूर खड़ी रहते हुए भी मेरे लिए अपने भीतर प्रेम रखती थी, अनचाहे भ्रूण की तरह उसने अन्तर की सफाई कर ली थी। जिसने कभी ब्याह-प्रस्ताव भेजा था, वापस ले रहा था। जिस विदुषी ने मेरी पहली रचना के प्रकाशन पर मिठाई बाँटी, जिसने घर बसाने का सपना दिखाया था, मुझसे कोई शिकवा-शिकायत किए बगैर किसी और का घर बसाने चली गयी।
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मैं नदी किनारेवाला भुतहा पीपल की तरह झंझावात सहते खड़ा रहा। लोग अपने-अपने ढंग से आरोप और लाँछन लगाते सदमे पहुँचाते रहे।
बहरहाल, जैसे भी, मैं साहित्य और पत्रकारिता की तरफ आ गया था और वह भी दिल-दिमाग से होल-टाइमर बनकर।
मेरा जो यह सहरसा-दरभंगा होते दिल्ली तक का सफर है, आम निम्नमध्यवर्गीय युवाओं जैसा ही है। अन्तर है तो यही कि वहाँ से चलते वक्त मेरी जेब में पैसे डालनेवाला या हौसलाअफजाई करनेवाला गाँव के सिवान तक कोई नहीं मिला।
एक युग इस दिल्ली की धूल फाँकते भी बीत गया है।...
यह भी सच है कि इस लायक बनाने में, मेरी जिन्दगी के टुकड़े-टुकड़े को जोड़कर सँवारने का काम ढेर सारे मित्रों के साथ ही नन्दिनी ने किया है। विगत 1994 से मेरी एक-एक साँस की गवाह नन्दिनी ने कठिन श्रम उठाकर, अपार दु:ख झेलकर, मेरे साथ एक घरौंदा सजाया है। कोमल और अमेय अब स्कूल जाते हैं। मेरी माँ मेरे बच्चों को भी कहानी सुना रही हैं। मगर हमारा परिवार 'अन्तिका’-‘बया’ और अंतिका प्रकाशन के साथियों को मिलाकर भी पूरा नहीं होता।...
दोस्तो, कभी मैंने अपनी (आत्मपरक) कहानी 'हम कहाँ हैं?’ ('नाच के बाहर’ संग्रह में है) के अन्त में लिखा था, ''आप मेरी बेशर्मी पर थूक सकते हैं कि मैंने आत्महत्या न करके कहानी-जीना शुरू कर दिया है।’’ आज अन्दरूनी हालात बहुत बदले नहीं हैं, मगर इस मसरूफीयत में भी मैं कह सकता हूँ कि अब मैं कहानी लिखता हूँ और कभी-कभी दिल खोलकर खूब हँसता भी हूँ।
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कहानियाँ लिखना कठिन और कष्टकर जरूर लगता है, लेकिन यह मेरी जिन्दगी का सबसे प्रिय, सुखद और श्रेष्ठ-कर्म है। एक बेहतर समाज का जो सपना है, न्याय की जो चाहत है, उसके लिए जो हमारी लड़ाई है— उसमें मेरी सहभागिता मुख्य रूप से अपनी रचनाएँ ही तय करेंगी। यह खुद तो नहीं कह सकता कि मेरे लिखे में क्या-कैसा है, पर मेरी कोशिश रहती है कि पसीने से भीगे मेहनतकश आम जनता के दु:ख, दैन्य, संघर्ष और आक्रोश के साथ ही उसके जीवन में जो कुछ सुख और उम्मीदों के क्षण-बिन्दु होते हैं— उनको भी उकेरूँ। वर्ग-शत्रु के असली चेहरे भी दिखाऊँ। थोड़ी स्नेह-वात्सल्य की बातें, थोड़े चुहल-व्यंग्य, थोड़े हँसी-ठट्ठे भी हों!...
लेकिन क्यों लिखता हूँ, यह बात अब भी साफ नहीं हो पा रही है। इसकी पीठिका और आन्तरिक स्थितियाँ जीवन और समाज से ही जुड़ी हैं। कुछ और गहरे अन्त:सूत्र होंगे। लेकिन उसको बयान करने की भाषा-सामर्थ्य मेरे पास नहीं है!...शायद किसी और काम लायक उपयुक्त और सही न होऊँ। लेकिन यह जवाब पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि कई ऐसे काम और भी हैं जिन्हें मैं कर सकता हूँ। खेती-बागवानी से मछली पालन तक का तो अनुभव भी है। गाँव-कस्बे के दैनिक जीवन में लन्द-फन्द के कामों में लगे लोगों के अनेक तरह के कारोबार का ऊँच-नीच भी जानने लगा हूँ। फिर भी कहानियाँ ही लिखता हूँ, तो जाहिर है कि किसी-न-किसी खास मकसद से ही। अब वह मकसद पूरा न हो पा रहा हो, यह दीगर बात है।
जहाँ तक कथा-प्रेरणा की बात है, तो यह मुझे विरासत में भी कुछ हद तक मिली। माँ से बहुत कुछ सुनता था। 'नाच के बाहर’ कहानी में जालिम सिंह नाच के गीत माँ के ही कण्ठ से लिये। मेरे बड़े बहनोई अनिरुद्ध झा(श्रीपुर) मशहूर किस्सागो रहे हैं। फिर गाँव में अक्सर किसी-न-किसी बड़े किस्सागो का आना लगा रहता था। छोटे-मोटे किस्सागो हर गाँव में होते हैं। ('दुरंगा’ के झबरू बाबा की तरह।)
मिरचैया के गर्भ में भी किस्से की खान है। भैंस चरानेवाले अग्रज साथी मोती बुढ़वा (मोती यादव) मेरे प्रथम किस्सा-गुरु हैं। आल्हा-ऊदल के सैकड़ों किस्से-प्रसंग उन्हीं से सुने हैं मैंने। लोरिक, सलहेस, कुँवर विजयभान, खानसिंह-मानसिंह, सामा-चकेबा, जट-जटिन के किस्से और गीत भी मोती बुढ़वा ने ही सुनाये थे। मिरचैया नदी और ग्वाले-मछुआरे से दोस्ती न होती, तो अगम पानी में घंटों तैरने या मछलियाँ पकडऩे का शौक-हुनर कहाँ से पाता! जिनके चूल्हे अगोरे रहता उन मल्लाहिनों के प्रेम, पसीने और नमक का कर्ज तो है ही, जाल फेंकने की कला सिखानेवाले मल्लाहों का गुरु-ऋण भी। उन मछुआरिन, ग्वालिन, तमोलिन, कामतिन, सरदारिन माताओं, बहनों, भाभियों से प्रीति न बढ़ती, तो अल्हड़ युवतियों के साफ-शफ्फाफ व्यवहारों से इस कदर कहाँ परिचित हो पाता कि पचीस-तीस वर्ष बीत जाने के बावजूद उनके सम्बन्धों की तपिश कम होती नहीं जान पड़ती है।
इन तमाम वजहों के साथ छाती पर बन्दूक ताननेवाले के वर्ग के कारनामें भी हमें उकसाते हैं। 'मस्तराम मस्ती में, आग लगे बस्ती में’ जैसा सोच रखकर मैं एक दिन भी चैन से नहीं जी सकता हूँ। फिर कुछ निजी असफलताओं से उपजी कुंठाएँ भी हैं। बढिय़ा बाँसुरी बनाकर भी वादक नहीं बन सका। आभरण-अलंकरण विहीन साधारणजन के चेहरे, उन चेहरों की भाव-भंगिमा और तमाम वे दृश्य जो नजरों को बाँध लेते हैं, उन सबको चित्रित करने की बड़ी अभिलाषा होती है! ढेर सारे ऐसे सवाल हैं जिन पर मैं आमजन के साथ साझा सम्वाद करना चाहता हूँ। लेकिन मैं न संगीतकार हूँ, न चित्रकार हूँ, न प्रवक्ता हूँ, न इंजीनियर और न जाने क्या-क्या नहीं हूँ!...कहानी ही मेरे लिए एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ मैं अपनी तमाम छोटी-बड़ी भूमिकाएँ एक साथ अदा करता हूँ। हाँ, सादगी का औजार मैंने कथा-गुरु अमरकान्त से ही पाया है!...
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दोस्तो, भीतर से लगता है अभी-अभी बचपन की गलियाँ पारकर कैशोर्य-आँगन आया ही हूँ। लेखन भी उसी अवस्था में है। रोज-रोज रियाज और लिखने-सुधारने का अभ्यास भी वही है। मेरे आगे एक-दो और तेज-तर्रार नयी पीढ़ी आ गयी है जिससे गुफ्तगू का मजा ही कुछ और है। कोमल और अमेय के आने से वात्सल-रस का परिपाक भी होने लगा है। मगर मैंने ढंग की दुनियादारी नहीं सीखी। बस, अनवरत लड़ता-झगड़ता चलता रहा। पिछले दिनों जब मौत को एकदम करीब से देखा तो लगा, नहीं, उम्र कोई भी हो, इनसान कभी भी मर सकता है। सो सफर के लिए अपना सामान बाँध के रखना बुरी बात नहीं! ऐसा सोचने के बाद मेरे लिए जिन्दगी की ढेर सारी मुश्किलें आसान हो गयीं। गदह-पचीसी की उम्र पिछली गली में छोड़ आया हूँ, अब तो सचमुच में मैं जवान हो गया हूँ!...
सो इस जवानी में कहानी बहुत है, मगर कितना कहा जाता है और कितना अनकहा रहता है, यह वक्त बताएगा। मेरी कहानी लेखन-गति धीमी गति के समाचार से भी धीमी है। बीस-बाइस वर्षों में चौबीस-पचीस कहानियाँ!
बहरहाल, व्यापक हिन्दी समाज का जो स्नेह मुझे मिला है, वह कम नहीं। मेरी सारी रचनाएँ (अपवाद में रियाज काल की कुछ चीजें छोड़कर) समय से छपीं। सम्पादक और पाठक दोनों का भरपूर स्नेह मिला। 'नाच के बाहर’ कहानी छपने के बाद अनामन्त्रित किसी जगह रचना भेजने की मुझे जरूरत ही नहीं पड़ी। इसके उलट रचनाभाव के चलते कई बार प्रिय सम्पादकों के आदेश का पालन ही नहीं कर पाया। अपने थोड़े से प्रिय सम्पादकों पर मैं पूरा भरोसा रखता हूँ, मुझे यकीन है कि जब भी मैं कुछ गलत लिखूँगा, वह वापस करेंगे। इसी तरह पाठकों से भी मेरा लगाव-जुड़ाव बढ़ता ही रहा है। उनका प्यार मेरा बल है। अपने तमाम प्रशंसकों के प्यार-दुलार का कायल हूँ। दुष्टजनों के आशीर्वचनों का भूखा नहीं हूँ! हथेली पर दही जमाने का धैर्य भी नहीं रखता हूँ! मगर सहमना-समानधर्मा के प्रति भवभूति-सा विश्वास है।
अब जहाँ तक प्रकाशन-अनुभव की बात है, तो पहली कहानी हो या इक्कीसवीं, फर्क नहीं पड़ता। वैसे सच कहूँ तो प्रकाशन को लेकर मेरी उत्सुकता बहुत कम होती है। सबसे ज्यादा खुशी मुझे रचना पूरी होने के क्षण होती है, बीच का समय 'गैम-पीरियड’ है। मैंने न तो कभी किसी कहानी के प्रकाशन पर मिठाई बाँटी, न किसी किताब के प्रकाशन पर, न किसी पुरस्कार पर। हाँ, अन्तरंग मित्रों की बात अलग है, वहाँ तो जेब का भी फर्क नहीं रहता।...बाकी इस रचनात्मक-आनन्द और उद्देश्य के बीच तालमेल बैठाने में मैं खुद को आज भी असमर्थ पाता हूँ।
बहरहाल, मेरी जिन्दगी आज भी दिहाड़ी मजदूर से बहुत अलग नहीं। भविष्य अनिश्चित है, मगर मैंने पत्थर के नीचे दबी दूब की आजादी और हरियाली देखी है।...
(चार किस्तों में प्रस्तुत यह सफरनामा मेरे एक पुराने आत्मकथ्य के संपादित अंश हैं. पहले एक पत्रिका और फिर मेरे दूसरे कहानी संग्रह 'मानुस' में बकलमखुद के अंतर्गत प्रकाशित हो चुके आलेख का सम्पादित और परिवर्धित अंश यहाँ इस आशय से प्रस्तुत किया है कि मेरे नए पाठकों को मिरचैया पलार की आगामी यात्रा में परेशानी या अपरिचय की स्थिति का सामना ना करना पड़े...)