Friday 5 August 2011

अनुभव और अनुभूति पर बेदखली का संकट

सनगोह और सांप के बाद आप अनुमान कर रहे होंगे कि इस बार मैं किस जानवर के प्रसंग अपनी याद साझा करने आउंगा... लेकिन इस बार अनुभव से ज़रा दूर अनुभूति के कुछ प्रसंग यादों में झिलमिलाते आ रहे हैं.

यूं हमने जानवरों के बीच और उनके साथ रहते जो जीवन जिए और भोगे थे उससे काफी ज़्यादा गहरे विकट और जटिल जीवन हमारे बुजुर्गों ने जिया-देखा और भोगा था. अरना भैंसे, बनैया सूअर, चीते और लकड़बग्घे का आतंक तो हमारे बचपन के शुरुआती दिनों तक था ही... फिर भी जानवरों के साथ उनका जीवन जितना एडवेंचरस था उतना हमारा कहाँ? हमारे जीवन में अगर कुछ ख़ास बचा था तो यही कि हम अपने से पहले के अनुभव से कटे नहीं थे, हमारा संवाद अपने से पहले की पीढ़ियों से गहन से गहनतम ही रहा. लोक, परम्परा, अनुभव, ज्ञान आदि को हमने शास्त्रों से ज़्यादा जीवन से लेना बेहतर समझा. खैर...

बहरहाल, कई घटनाओं के बीच से एक वह घटना याद आ रही जो मेरे पिता के जीवन से जुड़ी है. वैसे इस प्रसंग में कुछ भी साझा करते एक संकोच हो रहा है कि आज के पाठक इस पर यकीन शायद ही करे! यह सच है कि अपने पिता के प्रति मैं बहुत ही सम्मान का भाव रखता हूँ, लेकिन ज़रा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं...

मेरे पिता के पेट पर कई ऐसे निशान भरे पड़े थे जैसे अमूमन बड़े ऑपरेशन के बाद बन जाते हैं... जबकि उनका कोई बड़ा ऑपरेशन तो दूर, कभी किसी बड़े डाक्टरों के क्लिनिक भी उन्हें नहीं जाना पड़ा था. कोसी तब नई-नई बंधने लगी थी. वे गोविंदपुर से आ रहे थे. मिरचैया बढियाई और उछाल थी. हेलकर नदी पार करते समय वे किनारे से कुछ ही दूर थे कि एक मगरमच्छ ने कमर से ऊपर उनके पेट पर जबड़ा कस दिया. मिरचैया के पुरबी किनारे पर दो-तीन मछुआरे और मेरे बड़े काका(ताऊ) खड़े थे. उन्होंने जब मेरे पिता को धारा के साथ बहते और उगते-डूबते देखा, तो स्थिति का अनुमान कर बचाने को भागे. 

मगरमच्छ ने उन्हें इस तरह जबड़ों में दबोच लिया था कि किनारे से पानी के बाहर तक उसी स्थिति में दोनों को लाया गया. बाहर लाकर मगरमच्छ के जबड़ों के बीच दो मोटी-मोटी लाठी उन लोगों ने डाली... और एक लाठी से नीचले जबड़े को दबाकर दूसरे से उपरी जबड़े को अलगा कर उन लोगों ने मेरे पिता को बचाया था.

यह घटना मेरे जन्म से काफी पहले की है. मगर उस ज़ख्म के निशान उनकी मृत्यु तक थे ही. कई बार उन निशानों को छू कर हम उस घटना के बाबत उनसे तरह-तरह के सवाल करते जिज्ञासाओं से भर जाते थे. तब एक अजीब भय से देह में सिहरन सी होती थी. अब तो उनको गुजरे इक्कीस साल हो गए. उस घटना के बाबत कभी-कभार अपने बच्चों को बताता हूँ, जो कि अपने दादा को नहीं देख पाए हैं, तो ये दोनों मुझसे भी ज़्यादा भय से भरकर एक अजीब उदासी के बाबजूद स्मृति की इस यात्रा में मेरे सहयोगी बन जाते हैं... 


ऐसे डर-भय से भरे अनेक प्रसंग हैं जो मिरचैया के साथ जुड़ी हमारी स्मृति में टंकी हुई हैं, मगर तब भी मिरचैया हमारे लिए कभी डरावनी या बेगानी नहीं हुई. यूं तो हमारी तरफ नदियों को माता कहा जाता है, मगर मैंने हमेशा से इस नदी को प्रेमिका की तरह ही देखा और माना है. और मेरी वह प्रेमिका जो बीरपुर-बसमतिया के बीच हैय्या कहलाती, पूर्वी कोसी केनाल (नहर) पार करते मिरचैया बन हमारे इलाके को पार कर तिलाठी, छातापुर, कर्णपट्टी, डपरखा(त्रिवेणीगंज के पूरब से) तक यही नाम लिए आगे को कोसी में मिलकर गंगा की तरफ चली जाती है.

क्या इस नदी के किनारे मैंने और हमारे और भी साथियों ने सिर्फ जानवरों के साथ ही अनुभव समृद्ध किया था? क्या हमने प्रकृति और मानव मन के साझेपन को यहाँ से बेहतर कहीं और समझा था? दोस्तो, जीवन का सहज आनंद और प्रेम का सब से स्वस्थ फल मैंने यहीं तो चखा था और यहीं से आज मेरे बन्धु-बांधव बेदखल करना चाहते हैं.

5 comments:

  1. सच जमीँ से जुड़े रहने की एक अलग सी मिठास रहती है।सच जमीँ से जुड़े रहने की एक अलग सी मिठास रहती है।

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  2. 'मिरचैया पलार'पर ठेठ गौरीनाथियन गद्य का जो स्वाद मिल रहा है,वह हिन्दी में विरल है|कभी फ़णीश्वर नाथ 'रेणु' के गद्य मे कुछ इससे मिलता-जुलता स्वाद मिला था|पर गौरीनाथ की लेखनी के घेरे में ऐसी-ऐसी अनोखी बातें आ रही हैं,जिनपर लिखा भी जा सकता है - यह मेरी कल्पना से परे था|इनसे और इनकी लेखनी से मेरा कम से कम दो दशक पुराना रिश्ता रहा है,फ़िर भी मिरचैया पलार को पढते-गुनते मैं बार-बार चकित-विस्मित हो जा रहा हूँ|सच कहूं तो गौरीनाथ मुझे अचम्भित कर रहे हैं|

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  3. bumper blog!
    khaisak dom-khaisak dom
    kambal cheda bhedar lom
    lal para yauvan aami

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  4. We are living in difficult phase,thanks again for giving us the close overview!read this post with interest...will be waiting for more-Atul

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