Sunday 31 July 2011

हंस की रजत जयन्ती और मेरे नौ साल...

तब मैं लगभग अट्ठाईस साल का था. दो साल पहले छब्बीस की उम्र में कालिकापुर छोड़ पत्रकारिता में रोज़ी-रोटी के ठिकाने ढूंढते मैं दिल्ली आया था और कुछ छिटपुट नौकरियों के बाद डेढ़ साल "कुबेर टाइम्स" में चाकरी करके मुक्त हुआ था. तब जयपुर के एक अख़बार में न्युक्ति के लिए अग्रज मित्र यशवंत व्यास ने आश्वस्त कर रखा था. देर मेरी तरफ से ही थी और उसका कारण यह था कि मैं तत्काल दिल्ली छोड़ना नहीं चाहता था. उसी बीच एक दिन वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट ने बताया की मैं "हंस" जाकर राजेंद्र जी से मिल लूं और वहां काम करूँ... वेतन आदि तय करने की जिम्मेदारी भी बिष्ट जी ने अपने ऊपर ले ली. 

वही हुआ.मैं हंस पहुंचा, पहले भाई अरोड़ा जी ने बिना किसी भूमिका के मुझे जिम्मेदारी और काम समझाया फिर राजेंद्र जी से मुलाक़ात करवाई. अनौपचारिक ढंग से थोड़ी देर बातचीत हुयी और चाय पीकर विदा हुआ. अगले दिन 16 अक्टूबर 1997 की सुबह दस बजे से वहां काम करने लगा...

हंस में काम करना मेरे लिए उसके पुराने पाठक होने के नाते जितना सहज और आसान था उतना ही कठिन भी. कठिन इसलिए कि मैं उसकी गौरवशाली परम्परा से परिचित था. इस कारण मेरे सामने एक बड़ी चुनौती थी कि एक साथ प्रेमचंद और राजेंद्र यादव के महत्व और प्रतिष्ठा का ख़याल हर पल रखूँ. कुछ भी करते यह डर रहता था कि कुछ गलत ना हो और यह एहसास  मुझे अपनी जिम्मेदारी हर पल महसूस कराते रहता था. साथ ही राजेंद्र जी का सहज अनौपचारिक सहयोग और उनकी तरफ से निर्मित जीवंत माहौल ने जल्दी ही मेरे भीतर के संकोच को दूर कर अपने ढंग से और काफी हद तक स्वतंत्र ढंग से काम करने का माहौल दिया. मुझे नहीं लगता कि मैं सामान्य जिम्मेदारी निभाने के अलावा हंस के लिए कुछ उल्लेखनीय किया, हाँ हंस के अनुभव ने मुझे जरूर हर तरह से सबल किया और आगे निजी तौर पर पत्रिका संपादन और प्रकाशन के लायक बनाया.

देखते-देखते नौ साल बीत गए. इस बीच हमने हंस के 108 (एक सौ आठ) अंक निकाले. उनमें से दो-तीन अंक स्वतंत्र रूप से मेरे संपादन में भी आये. राजेंद्र जी के सान्निध्य में मैंने काफी कुछ सीखा-जाना. उनके जनतांत्रिक व्यवहार और असहमतियों को जगह देने की उदारता ने व्यक्तिगत रूप से मुझे काफी आकर्षित किया. असहमतियों के सम्मान का साहस मुझमें राजेंद्र जी के सान्निध्य में ही विकसित हुआ.

निश्चय ही लम्बे समय तक साथ काम करते अनेक मुद्दे पर असहमतियां भी रहीं, गंभीर मतभेद भी रहे... लेकिन अब जबकि हंस छोड़े पांच वर्ष हो गए, अंतिका-बया के काम के दबाव और अनेक तरह की व्यस्तता के चलते मिलना-जुलना भी कम होता है तब सिर्फ अच्छी-अच्छी बातों को ही याद करना मेरे ख़याल से बेहतर होगा. यूं भी दुखद प्रसंगों को भूलकर कालान्तर में अच्छी बातों को ही साथ और याद रखना मैं बेहतर मानता हूँ. वह मेरी सीखने की उम्र थी और मैं उसी आसंग में अपने उस दौड़ को याद करूंगा.

आज जब हंस का रजत जयन्ती आयोजन हो रहा है, मुझ सा मामूली आदमी हंस से अपने जुड़ाव को याद कर के अभिभूत हो सकता है. मुझे बेहद ख़ुशी है कि एक लम्बे समय से हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वाधिक बिकने और पढी जाने वाली इस पत्रिका में मैंने भी नौ साल काम किए. राजेंद्र जी जो इस वक़्त हिंदी साहित्य के सब से जीवंत संपादक-लेखक हैं उनसे मैंने काफी कुछ लिया. उनके स्नेह का ऋण हमेशा रहेगा. इस अवसर पर राजेंद्र जी और समस्त हंस परिवार को बहुत बहुत शुभकामनाएं....    

5 comments:

  1. सच राजेन्द्र जी का व्यक्तित्व काफी कुछ सीखने को प्रेरित करता है। अपनी आलोचना को सहजता के साथ सम्मान देना वाकई काबिलेतारीफ है।
    इस अवसर पर हंस को हार्दिक शुभकामनायेँ

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  2. बढियाँ ! ! ! मगर जी नहीं भरा |

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  3. Thanks for joining the blogsphere..wishing you all best success in the days ahead.As an avid reader myself,I have gone through almost all available issues of HANS{Before and with Rajendra Yadav},so have privilege to know about your meticulous work in literature.It's a major co-incidence that the most remarkable Maithili quarterly ANTIKA was also born during your struggle days at Ansari Road.Your suffering or rejoice assisted Maithili in great lot so it done to Hindi.Still as a reader,appreciate your overtures with ANTIKA/BAYA and Antika publication..hope you will keep alive the hopes of millions even you will feel it hard sometime.I have huge admiration for HANS as well but with serious reservation...wish to share,I also stopped reading this PATRIKA in 2005..can't say what was the reason!Atul Thakur

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  4. एक बहुत अच्छी बात है
    मतभेद के बावजूद आप याद कर रहे हैं हंस के साथ बिताए अपने वक्त को ...

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