Sunday 24 June 2012

अरुण प्रकाश : अंतरात्मा बचाने को खूबसूरत जिद्द पालने के शौकीन



गौरीनाथ

यूं ये जिद्द/ बड़ी खराब है/पर यही, /यही तो ज़िंदगी का बजता हुआ रबाब है...

अरुण प्रकाश अद्भुत जीवट इंसान थे. उनके पास कुछ बहुत खूबसूरत ज़िद्दें थीं. जिनके पास कोई जिद्द न हो वह और कुछ भी हो सकता है, एक अच्छा-प्रतिबद्ध रचनाकार-कलाकार तो नहीं ही हो सकता है. यह जिद्द ही थी कि वे जमी-जमाई नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आए. अरुण प्रकाश के शब्दों में कहूं तो, ''लोकप्रिय धारणा है कि कमलेश्वर जी ने मेरी सरकारी नौकरी छुड़वा दी, पत्रकारिता में ले आए. और यह उन्होंने बुरा किया. दरअसल कमलेश्वर जी को सहज उपलब्ध खलनायक मानकर कोई भी दोष उनके मत्थे मढ़ देते हैं... मैंने अपनी जिद्द के कारण सरकारी नौकरी से मुक्ति ली, मेरी जिद्द देखकर  उन्होंने मुझे पत्रकारिता में मौका दिया और कसकर काम लिया. राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय विषयों से लेकर व्यापार-सम्पादन जैसा टेढ़ा काम तक करवाया. जिसके कारण पत्रकार-बिरादरी ने मुझे अपनाया. वरना पत्रकारिता में आलम यह है कि साहित्य से जुड़े पत्रकार अपने को सवर्ण समझते तो शुद्ध पत्रकार अपने को सवर्ण.... लम्बी बीमारी के बाद उठा तो पीठ पर कूबड़, हाथ में बैसाखी थी. मेरे किशोरोचित उत्साह पर विकलांगता की सिल चढ़ गई थी. किसी ने कहा कि तैरने से तुम ठीक हो जाओगे. बस जिद्द चढ़ गई. बूढी गंडक में धारा के विरुद्ध तैर-तैरकर मैंने अपना शरीर सीधा कर लिया. वैसाखी छूटी और मेरे पास काम चलाऊ शरीर फिर आ गया. जिद्द को उपहास का सामना करना पड़ता है लेकिन यदि जिद्द आपकी क्षमता के अनुकूल हो तो उपहास करतल ध्वनि में बदल जाता है.''

अरुण प्रकाश जी से मेरा प्रथम परिचय उनकी 'जल प्रांतर' कहानी के माध्यम से हुआ, लेकिन अभिन्न और पारिवारिक हुए हम दिल्ली-रहवास के साथ. 1995 से. मैं शालीमार गार्डेन में रहता रहा हूँ, वे दिलशाद गार्डेन में रहते थे. दिलशाद गार्डेन से शालीमार गार्डेन की दूरी मेरे लिए आज भी पैदल की है. यूं  रिक्सा से भी आते-जाते, लेकिन पैदल में जो सहजता, सुविधा और मज़ा है उसकी बात ही कुछ और... इस रास्ते में कुछ चाय के ठीहे और पान की दुकानें हैं जहां अरुण जी के साथ सुकून से बतियाते इस परिक्षेत्र के लोगों से उनके जुड़ाव-लगाव की गहराई भांपते-महसूसते मैं अपने लिए एक परिचित-सी जगह बनाने की कोशिश में था. दिलशाद गार्डेन से लगे सीमापुरी, शहीद नगर, शालीमार गार्डेन इलाके की हरेक गली से अरुण जी का गहन जुडाव-लगाव रहा था. सिर्फ चायवाले नहीं रिक्सावाले, सब्जीवाले, फलवाले, नाई-धोबी, मोची, बढई, दरजी से लेकर दैनंदिन जीवन में ज़रुरत की चीजों या कामों के सिलसिले मिलने-जुलनेवाले हरेक तरह के पेशे के लोगों से उनका आत्मीय रिश्ता था. यह आत्मीय रिश्ता सतही स्तर पर नहीं था. अरुण जी अपने से जुड़े हरेक व्यक्ति के बारे में तफसील से और मुकम्मल जानकारी रखते थे. किनके कितने बच्चे हैं, लडके-लड़कियां क्या करते, कहाँ-कहाँ उनके रिश्ते हैं और क्या-क्या खाशियतें.... ऐसी तमाम जानकारियाँ. इनमें से कई ऐसे थे जिनसे वे गले मिलते हालचाल लेते. शहीद नगर के एक मोची-मित्र से मिलाते हुए उन्होंने उनका परिचय दिया कि ये इतने अच्छे गायक और कलाकार हैं कि फिल्म में चांस पाने को घर बेचकर मुंबई चले गए. जब वहाँ इनकी कला को पहचानने वाले नहीं मिले और पैसा ख़त्म हो गया तो फिर यहाँ आए. अब इनकी कलाकारी इन जूतों की बनावट और तराश में देख सकते हो. इनकी दूकान में सिर्फ खुद के बनाए जूते ही मिलते...

शुरू-शुरू में मैं कई बार रोमांचित-विस्मित होता कि अरुण जी के परिचय और अनुभव का दायरा कितना बड़ा है! होमियोपैथिक दवाइयों के जितने भी दुकानदार इस इलाके में थे सब से उनका परिचय था. डाकिया हो या बिजली मिस्त्री, डाक्टर हो या टैक्नोक्रेट, ऑटो रिक्सावाले हो या ट्रक ड्राइवर-- सब से उनका आत्मीय और सघन जुड़ाव था. 'फिर मिलेंगे' का वीर सिंह सिर्फ कल्पना से नहीं पैदा हुआ है. 'विषम राग' की कम्मो की दुनिया को गहराई से समझे-जाने बगैर उसकी ऐसी कहानी नहीं लिखी जा सकती. 'कम्मो थूककर नहीं चाटती!'अरुण प्रकाश अपने पात्रों के अन्तरंग-बहिरंग को जाने बगैर उसकी कहानी नहीं लिखते थे...

अरुण प्रकाश गहरे अर्थों में भारतीय लोक-मानस के चितेरे कथाकार हैं. उनकी कहानियों में विषयों की जितनी विविधता है उतनी अन्यत्र दुर्लभ. इस बाबत उनका मानना था कि जहाँ एक तरफ हमारे समाज में विविधता प्रचुर है, वहीं उनकी समस्याओं का कोई अंत नहीं इसलिए लेखक को चाहिए कि दुहराव से बचते हुए वह अधिकाधिक जनता की अधिकाधिक चिंताओं को रचना में प्रभावी ढंग से उठाए. इस आसंग वे भीष्म जी को आदर्श मानते थे. उनकी तरह ही उन्होंने न केवल बार-बार विषय-परिवर्तन किए बल्कि बार-बार शिल्पों को भी तोड़ा-तराशा. 'बेला एक्का लौट रही हैं', 'भैया एक्सप्रेस', 'जल-प्रांतर', 'तुम्हारा सपना नहीं', 'विषम राग', 'हिचक', 'आख़िरी रात का दुःख', 'गज पुराण' आदि हर एक से दूसरी कहानी के बीच विषय से भूगोल तक का जो बदलाव अरुण जी ने संभव किया है, ऐसा हिन्दी कहानी में पिछले 35-40 वर्षों में और कहीं नहीं मिलेगा.
अरुण प्रकाश ने कविताएँ  और व्यंग्य भी लिखे. एक प्रखर पत्रकार होने के नाते गैर-साहित्यिक वैचारिक लेखन और अनुवाद भी कम नहीं किए. 'रक्त के बारे में' कविता-संग्रह छापा. 'कोंपल कथा' उनका चर्चित उपन्यास है. विद्यापति पर 'पूर्व राग' उपन्यास अपूर्ण रह गया. सात कहानी- संग्रहों और आठ अनूदित पुस्तकों के बाद वे आलोचना की तरफ मुड़े भी तो पूरी तैयारी से और ऐसा विषय लेकर जिस पर हिन्दी में सबसे कम काम हुआ है. कथेतर गद्यों की आलोचना के बहाने उन्होंने फ़ार्म और जेनर को लेकर 'गद्य की पहचान' जैसी पुस्तक हिन्दी को दी.  अभी उनकी दो और आलोचना पुस्तकें आनी हैं. असंकलित कहानियों-व्यंग्यों-लेखों की भी चार-पांच किताबें और हो सकती हैं.

बहरहाल, मैं अखबार में काम करता था तब भी और जब 'हंस' में आया तब भी-- आफिस जाने और घर लौटने के मेरे रास्ते मात्र ही नहीं, लगभग कहीं भी घर से बाहर जाने और लौटने के रास्ते अरुण जी के घर की तरफ से गुजरते थे. इस कारण भी हमारी मुलाकातें ज्यादा होती थीं. अक्सर हम कहीं जाते अलग-अलग भी मगर लौटते साथ थे और इस क्रम में उनके घर या आसपास के किसी चायवाले ठीहे पर हम घंटों जम जाते थे. हम जहां भी जमते उनकी दुकान बढ़ाने के बाद ही वहाँ से हिलते. जब उनके घर बैठते तब भी वहाँ से निकलते-निकलते अक्सर रिक्सेवाले अपने घर जा चुके होते. असल में अरुण जी के घर हों या कहीं और, कभी बात एक चाय पर ख़त्म नहीं होती थी. कई चाय और मट्ठी, फेन-रस या नमकीन-दालमो के साथ हमारी बातचीत अंतहीन चलती  रहती थी. हमारी बातचीत के विषय साहित्यिक कम ही हुआ करते. अक्सर सामाजिक समस्याएँ और मनुष्य की ज़िंदगी के सुख-दुःख ही हमारी चर्चाओं में होतीं. फसल-चक्र, अनाज के किस्मों और व्यंजनों के अलग-अलग स्वाद को लेकर उसके अतल तल तक जाते. ''कलछुल की टकराहट के बावजूद उसे भुने प्याज की गंध अच्छी लग रही थी''(छाला) जैसी गहरे इन्द्रीयबोध से संपृक्त पंक्तियाँ कोई यूं ही नहीं लिख सकता. उनकी रचनाओं में पात्र-परिवेश और स्थितियों से संदर्भित विवरण(डिटेल्स)  पर्याप्त  होते हैं और ये आम लोगों के जन-जीवन से होते हैं. यूं वे कहते हैं, ''मिथिला की बातें, सन्दर्भ, जो भूल जाता हूँ, उसे बेहिचक बाबा नागार्जुन से लेता हूँ. मसलन मिथिला के आमों, मछलियों की वेरायटी के बारे में कहाँ से जानकारी दूं? नागार्जुन के बगीचे और पोखर से चुराने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.'' लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं. सिमरिया की गंगा और बूढी गंडक किनारे के इस मैथिल लेखक के पास जितनी विविधतापूर्ण जानकारी है उतनी अन्यत्र दुर्लभ. बाबा सिर्फ वैरायटी और स्वाद बताते, अरुण प्रकाश उनके रासायनीक गुणों को बेहतर जानते हैं-- उन बस्तुओं के तात्विक गुणों, खूबियों-खामियों के साथ ही उसके विपणन और व्यापार को भी उद्घाटित करते हैं. अरुण प्रकाश की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक समझ ऐसी थी की वे सड़क-निर्माण और जल-प्रबंधन पर भी कुशल इंजीनियर की तरह राय रखते थे. समाजशास्त्री-अर्थशास्त्री की तरह सिद्धांतों की चर्चा भी वे प्रसंगतः करते थे. वे जिस तरह माछ, मखान, पान या गेंहू के कारोबार को समझते थे उसी तरह जींस, मिठाई और कास्मेटिक से जुडी बाज़ार-व्यवस्था के कुशल जानकार और विश्लेषण में सक्षम थे.

अरुण जी से मेरा सम्बन्ध बिलकुल घरेलू था. वर्ष 2003 में जब मैं डेंगू से पीड़ित हुआ तो वे दिन-रात एक किए खड़े थे. एक दफा मेरा बेटा बीमार  पड़ा तो आफिस से मेरे लौटने से पहले उसको लेकर वे अस्पताल पहुँच गए थे. ऐसे अनेक प्रसंग है जिन्हें लिखने लगूं तो पूरी किताब बन जाएगी... कहने का आशय यह कि उनके जाने से मैंने अपना आख़िरी अभिभावक खो दिया है... अब दिलशाद गार्डेन, शालीमार गार्डेन, शहीद नगर, सीमापुरी के इलाके के वे ठीहे बार- बार उनकी कमी महसूस कराते रहेंगे जहां कभी हम साथ-साथ होते थे... बिहार और वहाँ से आकर इस इलाके में बसे लोगों के सम्बन्ध समीकरण सुलझाते समय भी उनकी कमी खलती रहेगी...

असल में अरुण प्रकाश जिस इलाके से आते हैं वह कठिन श्रम के बावजूद आर्थिक-संघर्ष में जीने वाले लोगों का इलाका है. वहाँ सामाजिक-राजनीतिक सजगता काफी है. अरुण जी के पिता समाजवादी राजनीति में सक्रिय थे और मां स्कूल-शिक्षिका थीं. वह सात साल के थे जब उनकी मां गुजर गई. जब किशोरावस्था में पहुँचे तभी राजनीतिक ईर्ष्या के कारण उनके पिता को कार से कुचलकर मार डाला गया. बाईस वर्ष की अवस्था में उन पर पूरे परिवार का बोझ आ गया. कहने को सांसद के बेटे थे, मगर दो वर्ष बाद ही एम.पी. फ़्लैट खाली कर सर्वेंट क्वार्टर में आ गए थे. अरुण जी के शब्दों में उनकी स्थिति कुछ इस तरह थी, '' सामर्थ्य की लक्ष्मण-रेखा खिंचकर गरीबी मनुष्य को छोटा कर देती है. बमुश्किल पढाई हुई, ट्यूशन के चक्कर, पिता के खाते-पीते मित्रों/रिश्तेदारों के सहारे बड़ा हुआ. मेरे परिवार के लोग सम्मान-स्वाभिमान को गरीबी से ज्यादा प्यार करते थे. सारे अमीर मूल्यहीन दिखते थे. इन निम्नवर्गीय गरीबी और अपने मूल्यों से केकड़े की तरह कीचड़ से चिपके रहते थे. हायर सेकेंडरी के परीक्षा के दिन थे. अप्रेल की तेज गरमी में कोलतार की सड़क पर नंगे पाँव परीक्षा देने जाता था. तलवों में छाले पड़ गए. रहम खाकर मेरे पिता के एक मित्र ने नई चप्पल करीद दी. वह मेरे जीवन की पहली चप्पल थी. नई चप्पल ने काट खाया. तभी जाना की गरीबी से उबरने में भी छाले  पड़ते हैं. लक्ष्मण-रेखा छलांगना तो बस बुझते दिए के बश की बात है.''

तमाम जद्दोजहद के साथ  एक संघर्ष भरी ज़िंदगी जीते हुए अरुण प्रकाश ने लगातार लिखा. जैसी जिन्दगी चाही वैसी बनाई. नौकरी छोड़ पत्रकारिता में आए. पहले ''जागरण'' फिर ''सहारा'' और फिर कई अखबार-पत्रिकाओं से होते वर्षों फ्रीलांसिंग भी की.  तरह-तरह के अनुवाद, स्क्रिप्ट-राइटिंग, धारावाहिकों के लिए लेखन, फिल्मों-टेलीफिल्मों के लिए लेखन  करते पत्रकारिता-संस्थानों में पढ़ाया भी खूब मन लगाकर. फिर साहित्य अकादेमी की पत्रिका में आए तो वहाँ भी अपनी छाप छोड़ी. वीना भाभी हर कदम पर उनके साथ रहीं. बेटे मनु प्रकाश और बेटी अमृता प्रकाश भी अब जाब में हैं. एक तरह से अब उनकी इत्मीनान से लिखने की उम्र और स्थिति बनी थी. इधर लगातार लिखने में सक्रीय थे. विद्यापति के जीवन पर ''पूर्व-राग''  उपन्यास और कई नए विषय उठा रहे थे. गद्य-आलोचना में अछूते विषयों-क्षेत्रों पर सक्रीय थे कि सांस की यह बीमारी लंग्स को डैमेज करती धीरे-धीरे गंभीर हो गई.

लगभग चार-पांच साल बीमार रहे. शुरू में कुछ-कुछ घंटों के अंतर पर आक्सीजन लगाने की जरूरत पड़ती थी फिर चौबीसों घंटे आक्सीजन लगा रहने लगा. फिर कार्बन डाक्साइड निकालने के लिए बाई-पाइप की जरूरत भी होने लगी. और फिर आई.सी.यू. और घर की आवाजाही में घर से ज़्यादा आई.सी.यू. में ही रहने लगे. महंगे इलाज के इन वर्षों में भी उनके चहरे पर कभी उदासी नहीं आई. इस दौरान हिन्दी समाज के अनेक महामनाओं ने चाहा कि थोड़ा-बहुत दान-अनुदान देकर दैहिक मृत्यु से पहले अंतरात्मा को मारा जाए, लेकिन अरुण प्रकाश जी और उनके साहसी पुत्र मनु प्रकाश ने हिम्मत नहीं हारी. ''ना'' कहानी की नायिका की तरह हरेक अनुदान के प्रयास और दया को उन्होंने ना कहा. घर बिक गया तो फिर होगा, इस विश्वास पर स्वाभीमान के साथ खड़े रह जमीर पर खरोच नहीं आने दी. स्वाभीमान से भरे अरुण प्रकाश के इस साहस और जिद्द को सलाम करने से पहले इतना कहना चाहूंगा कि हिन्दी में ऐसा जिद्दी, साहसी और संघर्षचेता शायद ही फिर हो. मुझे प्रसन्नता है कि मुझे उनका स्नेह मिला.

Saturday 23 June 2012

जल-प्रान्तर

एक यादगार कहानी 

अरुण प्रकाश 
दूर से मंदिर दिखाई देता था।
चारों तरफ फैले अछोर पानी के बीच घिरा शिव मंदिर। पानी इतना गहरा था कि हवा के थपेड़े से लहरें भी कम ही उठ पाती थीं। हवा पूरी तेज़ी से फेंके गए गेंद की तरह आती और पानी की सतह सहलाती आगे बढ़ जाती। पानी का किनारा धुँधला दीखता था। पता नहीं, हवा कहाँ जाकर रुकती थी। पर जब रुकती थी बादलों से भरा आकाश थोड़े खुले नल की तरह गंगा की पसरी देह पर टपकने लगता था। बूँदें गिरतीं तो गुस्सैल पानी पर जैसे फफोले उगते और मिटते चले जाते।

पानी के बीच घिरा मंदिर अनाथ बच्चे-सा निर्जन में खड़ा था। डरा और निरुपाय। गंगा ने इस बार बाढ़ के सारे पूर्वानुमान तोड़ दिए थे। भागने पर भी ठौर मुश्किल। पृथ्वी धँस गई थी और माटी पानी में लगातार कटाव की वजह से घुलती चली जा रही थी। पड़ोस का पहाड़ी थान घाट जल में समा चुका था। श्रद्धालुओं को घाट तक आने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि गंगा का जल उन्हें उनके ही घर से खदेड़ रहा था। लोग धामिन साँप की तरह फुँफकारते पानी के आगे-आगे भागते चले गए थे और पुरानी रेलवे लाइन की पुख्ता टीलेनुमा सड़क पर जमा हो गए थे। सिमरिया घाट तक जाती रेलवे लाइन कभी होती थी। पुल बनने के बाद रेल वाले पटरियाँ उखाड़ ले गए थे पर रेलवे लाइन का नाम छोड़ गए थे।

बहुत मरे। जानवर, शिशु, चूहे, बिल्लियाँ। कुत्ते आदमी को सूँघते साथ-साथ भागे थे। अचानक पानी ही सब कुछ हो गया थासरकार, ताकत, दया, क्रोध...। भागते लोग सिर्फ पत्ते के तरह बज सकते थे। राहत के लिए थकी पलकों को ऊपर उठाकर देख सकते थे कि कोई हेलिकॉप्टर आए, और बासी रोटी और प्याज़ का पैकेट गिरा दे। गहरे जल में गिरे पेड़ अपनी टहनियों से घायल तने को सहलाने की कोशिश करते। गिद्ध उड़ते रहते और कहीं मवेशी की तैरती लाश पर उतर आते। मज़े में लाश को चुगते गिद्ध लाश के साथ ही बहते जाते।

पंडित वासुदेव मंदिर के द्वार पर बैठे देखते रहते और घृणा से सिहरते रहते। किससे क्या कहते उस निर्जन में? पानी ने सबको बेदखल कर दिया था। गुस्सैल गुलगेंट मंदिर के गिर्द बनती और मंदिर की नींव, सीढिय़ों और दीवारों से अपने-आपको रगड़ती रहतीं। मंदिर के अहाते में बनी दोनों खाली कोठरियाँ गुलगेंटों के धक्के से बैठ गई थीं। पंडित वासुदेव ने देखा थाकोठरियों की छत तिरछी हो गई हैं। सन्न रह गए थे वे। मन उचट गया। वे जल्दी-जल्दी सुमरनी माला को खींचने लगेया प्रभु! हे गंगा माई! हर साल बाढ़ आती है इस पहाड़ीथान घाट में। माई, तू तो पहाड़ीथान घाट की सीढिय़ों से ही लौट जाती है। पूरा इलाका जानता है जिस दिन पहाड़ीथान डूबेगा, उस दिन प्रलय हो जाएगा। कोई नहीं बचेगा। शांत रह माई, अगर यह शिवाला बाढ़ में डूबा-धँसा तो शिव-भक्त पहाड़ी बाबा का कोप नहीं सह पाएगी तू! जय हो पहाड़ी बाबा... जय पहाड़ी बाबा।

जब कोठरी की छत बैठी तो पहाड़ीथान में घुटने भर पानी था। पंडित वासुदेव ने बड़े जतन से सूखे उपलों को कोठरी की छत पर डालकर प्लास्टिक के बोरे से ढक रखा था। तेज़ धूप में यह करते उपले की तरह ऐंठ गए थे। सारी मेहनत अकारथ गई जब छत गंगा में समा गई। पानी में बहते उपलों को वे देखते रह गए। कैसे हवन दे पाएँगे बिना अग्नि के। फूलों के पौधे भी तो पानी में डूब गए थे। पूजा में सिर्फ अगरबत्ती जला देंगे। धीरे-धीरे शिवालय पर पानी का पहरा कस गया था। बस सीढिय़ों के पास थोड़ी-सी ज़मीन बची थी। पूजा-पाठ के बाद भगवान को सत्तू का भोग लगा देते। फिर बड़े कटोरे में महाप्रसाद (सत्तू) और रामरस (नमक) को गंगाजल में मिलाकर सानते और लंका (लाल मिर्च) के साथ खा जाते। घड़े में थिर रहे बाढ़ के गँदले पानी को छानकर पी लेते।

सब कुछ से निपट मंदिर की सीढिय़ों पर बैठे अदृश्य होते किनारे को सुमरनी फेरते ढूँढ़ते रहते। कभी कोई सूँस पानी के अंदर से औंधे मुँह उछलती तो पंडित वासुदेव बच्चे की तरह खुश हो जाते। वे खुद नदी किनारे बसे गाँव से थे। जब नदी उफना करती तो उस नन्हीं शांत बाया (विशाला) नदी में सूँस आ जाते। कभी मछलियों को पकडऩे या यूँ ही मौज में आकर सूँस पानी से ऊपर उछलती तो नन्हे पंडित वासुदेव खिलखिलाने लगते थे। उफनती, पसरी गंगा में नावें भी नहीं थीं जिन्हें निहारा जाए। काले-मटमैले और बदसूरत सूँस में ही पंडित वासुदेव का कुतूहल टिका रहता।

कोठरी की छत बैठने के बाद ही चीज़ें बदलने लगीं। उस दिन पंडित वासुदेव ने स्नान किया और अँगोछा लपेटकर गीली धोती को निचोडऩे लगे। बादलों से भरे आकाश से चुटकी भर धूप छिटककर गिरी तो पंडित वासुदेव ने सोचानिचुड़ी धोती को मंदिर की गोल दीवारों पर लपेट दिया जाए तो इतनी कम धूप में भी धोती सूख जाएगी। मंदिर के दरवाज़े के साँकल से धोती का एक किनारा बाँधकर, धोती सँभालते मंदिर की परिक्रमा करते चल पड़े। पानी में गिरने से बचते-बचाते मंदिर के पिछवाड़े पहुँचे तो सन्न रह गए।

मंदिर की दीवार में खुदे हाथ भर ऊँचे कई छोटे-छोटे मंदिर थे। ऐसे ही एक मंदिर से एक साँप फन ताने फुँफकार रहा था। पानी में गिरते-गिरते बचे पंडित वासुदेव। चील-सी सतर्कता से पीछे मुड़े और धोती की परवाह किए बगैर मंदिर के दरवाज़े पर आकर मंदिर की सीढ़ी पर धम्म से बैठ गए। हे शिव! रक्षा करो! अपनी साँसों को सहेजते बैठे रहे। पानी के लहरों-संग बहती धोती सामने आ गई। पंडित वासुदेव ने देखागँदले पानी से मटमैली गीली धोती को, फिर दरवाज़े की साँकल को जहाँ धोती का एक सिरा बँधा था।

मंदिर की सीढ़ी पर बैठे पंडित वासुदेव के मन की गाँठ खुल गई थी। क्रोध से झनझनाती पंडिताइन की आवाज़ स्कूल के घंटे की तरह सुनाई पडऩे लगी। बच्चे की तरह चौकन्ने पंडित वासुदेव देख रहे थे चंडी बनी पंडिताइन को...


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''कोई काम नइँ देत? रातियो रेडियो में कहलकै जे गंगा के पानि खतरा के निसान से आर उपर बैढ़ जैतै। पहाड़ी घाट सँ सब लोग भागल। अहाँ माला फेरैत बैठत रहू।'' चालीस वर्षीय थुलथुल पंडिताइन क्रोध से तर बाणों से पंडित वासुदेव को बींधे जा रही थीं। घृणा से गोरी-चिट्टी पंडिताइन के चेहरे की नसें उभर आई थीं।

''भगवान सब की रच्छा करते हैं, ऊ हमरी नहीं करेंगे?''

''भगवान रच्छा करते तो परलय होता?'' पंडित की बात को गेंद की तरह लपककर फिर से उछाल दिया पंडिताइन ने, ''सब कुछ बह गया, ई गाँव का गाँव मसान बन गया। कौन भगत आएगा जो चढ़ौआ के लिए पड़ल रहेंगे?''

''शिव-शिव कहो टभकावाली। सब दिन भगवान ने ही परसाद भेजा। मैं गरीब ब्राह्म, कहाँ से पेट चलाता रहा? भगतों के चढ़ौआ से ही न? आज बाढ़ की विपत्ति आई तो भगवान को छोड़कर भाग जाऊँ? पहाड़ी बाबा का शाप कौन झेलेगा?''

पानी तवे पर चढ़ी रोटी की तरह था। पतली रोटी की तरह छिछला पानी। जैसे-जैसे बाढ़ का ताप बढ़ता, रोटी पकती और फूलती जा रही थी। आस-पास के गाँवों के लोग गंगा नदी के फूले पेट का अंदाज़ा पहाड़ी घाट की सीढिय़ों पर चढ़ते पानी से लगा रहे थे। अलस्सुबह श्रद्धालु पहाड़ी घाट स्नान करने पहुँचते, पहाड़ी थान में पूजा कर अपने घर लौटते तो पानी पर फैले किरासन तेल की तरह खबर पूरे इलाके में फैल जाती कि पहाड़ी घाट की इतनी सीढिय़ाँ पानी में डूबने से बची हैं।

सतर्कता से लोग और कस जाते। माल-मवेशी का सूखा चारा मचान बनाकर ज़मीन से ऊपर रख दिया जाता। जलावन और अनाज की बोरियों को काठ की चौकियों (तख्तों) के ऊपर रख दिया जाता। गरज ये कि जीवन बचाने वाली सभी चीज़ों को ज़मीन की सतह से ऊपर रख दिया जाता। रोज़ शाम को जवार के लोग रेडियो से प्रादेशिक समाचार सुनने के लिए चिपक जाते।

निपनियाँ, मधुरापुर, सिंगपुर, महंथ टोल, जयनगर, रूपनगर, सिमरिया, अमरपुर, गंगापरसाद टोला में बाढ़ का आना कोई नई बात नहीं थी। ये गाँव साल-दर-साल बाढ़ की विनाश लीला भुगतते फिर भी केंकड़े की तरह नदी के किनारे से चिपके रहते। अपनी ज़मीनें छोड़ लोग कहाँ जाते? अस्सी साल पहले बना गुप्ता बाँध बूढ़ा हो चुका था। जगह-जगह दरारें थीं। चूहे जैसे ठेकेदारों ने बाँध के अंदर-अंदर बिलें बना रखी थीं। बाँध कभी नदी के तल से पचास फीट ऊँचा होता था। लेकिन धीरे-धीरे गंगा की कोख में बालू भरता गया। नदी का तल ऊँचा उठता गया। इस तरह बाढ़ से रक्षा करने वाला गुप्ता बाँध बौना दिखाई देने लगा था। अजीब यह था कि गुप्ता बाँध पर हर साल बाढ़ नियंत्रण के नाम पर कागज़ी तौर पर मिट्टी डाली जाती थी। पर गंगा की कोख में भरते बालू के ढेर को साफ नहीं किया जाता था। गंगा का तल गहरा हो जाता तो शासन-तंत्र की हरियाली सूख जाती। गंगा में आई बाढ़ राजधानी पटना में भी पूँछ फटकारने लगी थी। फिर भी बाढ़ के कई फायदे थे। बाढ़ का प्रकोप असंतोष, राजनीतिक उठा-पटक, हड़ताल सबको स्थगित कर देती थी और सालों तक रिश्वत के पानी से शासन की जड़ों को सींचती रहती थी। राजधानी से दूर-दराज के इलाकों में बाढ़ आती तो हेलिकॉप्टर से उड़ान भरने का मज़ा भी साथ लाती। सिमरिया गाँव तो बाढ़ को दाद की तरह हर साल खुजलाता। लेकिन लगता था कि इस बार दाद से खून भी निकलेगा।

जब पहाड़ी घाट की तीन सीढिय़ाँ पानी में डूबने से बची थीं तो घाट पर बनी फूस की दुकानें हटने लगीं। राम साह की मिठाई की दुकान, सीत्तो मल्लाह की पान-बीड़ी की दुकान और परभूआ की चाय की दुकान तीनों उठ गए। बैलगाड़ी लदे छप्पड़ों और सामानों को जाते देख पंडिताइन दुख से ठगी रह गई। सब दुकान वाले ही उनके पड़ोसी थे। रात-बिरात सुख-दुख में काम आने वाले, फुर्सत में गपियाने वाले। रमेसर, परभुआ चाय वाले के भाई ने पंडिताइन को टोक दिया, ''अब्ब ई घाट भी नहीं बचेगा चाची! चचा से कहिए कि कल तक मंदिर से हट जाएँ। ऊपर से पानी, नीचे से पानी। कइ दिन घाट बचेगा? ई संतोष तो आज भी जाने को राजी है।'' पंडिताइन ने उसाँस भरी, ''संतोष की बात कौन मानेगा बेटा? पंडिज्जी कहेंगे तभी न!''

पंडिताइन का बेटा संतोष अपनी माँ के पास खड़ा रमेसर को जाते देखता रहा। पंडिताइन ने पूछ लिया, ''भोला बड़ही दोकान नहीं ले गया?''

''काहे ले जाएगा? रात में ही कोई मुर्दा आ गया तो उसका लकड़ी-बाँस बिकेगा न? ऊ बड़का नाव ले आया है। घाट डूबने लगेगा तो नाव में लादकर ले जाएगा। फिकिर तो हम लोगों को है। माई, बाबू से आज साफ कह दो कि हम लोग भी रेलवे लाइन पर चले जाएँ, नइँ तो सोए रहेंगे आ राते में बाढ़ के पानी में समा जाएँगे।''



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दाल, चावल, आटा, मसाले, नमक-तेल का साठ किलो का बोझ माथे पर लादे पंडित वासुदेव पहाड़ी थान पहुँचे तो खाए-पीए बलिष्ठ शरीर पर कपड़े पसीने से भीगकर चिपक गए थे। गोरा, नुकीला चेहरा पसीने की वजह से तने भाले की तरह चमक रहा था।

''ए संतोषक माइ, सामान ले आया हूँ। अब निश्चिन्त हो जाओ। कल फिर बारो बाज़ार जाकर मटिया तेल (किरासिन तेल) भी ले आऊँगा। बस, बाढ़ में कोनो तकलीफ नहीं।''

चूल्हे में कोयला लहकाती पंडिताइन नि:शब्द उठ खड़ी हुई और मिट्टी के घड़े से एक लोटा पानी निकालकर पंडित वासुदेव के सामने रख दिया। अँगोछे से हवा करते पंडित वासुदेव हाथ-मुँह धोते, पंडिताइन की चुप्पी को बबूल के धँसे काँटे की तरह महसूस करते रहे।

''एक लोटा पानी और।'' पंडित वासुदेव ने कहा।

पंडिताइन फिर उठीं, और पानी डालकर उनके सामने रख गईं। पंडित पर एक अर्थपूर्ण दृष्टि डालकर बोरे में आए सामान को सहेजने लगीं। संतोष बछिया को हाँकते आया तो पंडित वासुदेव को बोलने का मौका मिल गया।

''संतोष, कल हम दोनों बारो चलेंगे और बछिया के लिए थोड़ा और भूसा लाकर रख देंगे।''

बछिया को खूँटे से बाँधते हुए संतोष ने गर्दन तिरछी कर बाप को देखा। चुपचाप। भीतर-ही-भीतर संतोष उबल रहा थासारा सरंजाम गंगा माई लील जाएगी। सोचते रहिए कि पहाड़ीथान नहीं डूबेगा। जब डूबने लगेगा तो गाँव से चार किलोमीटर दूर कोई बचाने भी नहीं आएगा। सीतो मल्लाह क्या पागल है? जि़ंदगी भर नाव खेता रहा है, दाहिने हाथ के टूटने के बाद न पान-बीड़ी की दुकान चलाता है! वो कोई झूठ थोड़े ही कहता हैई कलिजुग है संतोष। गंगा माई के लिए पहाड़ीथान डुबाना क्या मुश्किल?

संतोष और उसकी माँ की चुप्पी से फट पड़े पंडित वासुदेव।

''क्या हो गया है तुम लोगों को? मुँह में पान है क्या?''

''बाबू, यहाँ सामान जुटाने से क्या फायदा? इस बार बाढ़ में कुछ भी नहीं बचेगा। घाट के सब दुकानदार चले गए, हम लोग भी चले जाते...'' संतोष ने दबी ज़ुबान से कहा।

''कहाँ चले जाते? हम कोई मल्लाह हैं कि घाट डूबने लगे तो नाव आगे बढ़ा दें? कोई पहली बार गंगा माई का कोप हुआ है? हर साल बाढ़ आती है, सब चले जाते हैं, पंडित वासुदेव यहीं रहता है। माई को पूछ, कब मंदिर में पानी घुसा है? गंगा माई हर साल आती है, पहाड़ीथान के चरन पखार कर चली जाती है। पहाड़ी बाबा का परताप है!''

पंडिताइन मकई की मोटी रोटी थापती पंडित वासुदेव का भाषण गुनती रहींई मानुष थोड़े मानेगा? सास कहती थी, ''अइसन जि़द्दी वसुदेवा, बाप ने संस्कृत की मध्यमा परीक्षा में फेल होने पर डाँटा कि ई विषा गया। घर से भागा सीधे पहाड़ी बाबा के पास। साधु बनेंगे। टोला-समाज कहते-कहते थक गया, नहीं लौटा। आखिर पहाड़ी बाबा ने बड़का चेला बनाया और कहाअरे बम भोले भी तो बियाह किए थे। तब ई चालीस साल की उमर में शादी किया।''

''ए संतोष, बेटा उ सब बात छोड़, खाना खा ले।''

पंडिताइन ने बात सँभाल दी। कौन ठिकाना, सत्रह साल का छोरा बाप से झगड़ ही जाए। गरम खून है। एक तो संतोष ऐसे ही यजमानी के धंधे पर भुनभुनाता है। उस पर रमेसरा के साथ बैठकर पार्टी-फार्टी बोलता रहता है।

उकताए पंडित वासुदेव संध्या-पूजा करने मंदिर में घुस गए थे।

रात-भर झमाझम वर्षा होती रही। तेज़ हवा का झोंका आता तो पंडिताइन की कोठरी में पानी की बौछार दरवाज़े के दरार को भेद जाती। हर्र-हर्र की आवाज़ आती रहीलहरें गरज रही थीं। पहाड़ी घाट से सटा किनारे को वर्षा और गंगा मिलकर काटते चले जा रहे थे। पानी किनारे की मिट्टी को अपनी धारा के चाकू से अंदर-अंदर काटता जाता और किनारा कटकर चट्टान की तरह गिरताधड़ाम! वीरान रात में अकेली तेज़ धड़ाम की आवाज़ पंडिताइन के कानों पर दस्तक देती। पंडिताइन उठ बैठतीं। सामने खाट पर सोए संतोष पर एक नज़र डालकर आश्वस्त होतीं और सोने की कोशिश करने लग जातीं।

करीब चार बजे सुबह ओ-ऽ-ओ-ऽ की आवाज़ सुनकर पंडिताइन उठ बैठीं। संतोष कलेजा थामे उल्टियाँ कर रहा था। झपटकर पंडिताइन संतोष की पीठ को अपनी हथेलियों से दबाकर बैठ गई। संतोष उल्टी दबाने की कोशिश करता, फडफ़ड़ाते फेफड़ों को थामने लगा।

मंदिर में जगे पंडित वासुदेव प्रातकाली गा रहे थे। उनके गाने की आवाज़ वीराने में तेज़ लग रही थी

किछु ने रहल मोरा हाथ।
हे ऊधो किछु ने रहल मोरा हाथ।
गोकुल नगर सगर वृन्दावन, सुन भेल यमुना घाट
किछु ने रहल मोरा हाथ

पंडित वासुदेव को जगा जानकर घबराई पंडिताइन ज़ोर से चिल्लाईं, ''पाहुन!''

पंडिताइन पंडित वासुदेव को पाहुन (अतिथि) कहकर ही बुलाती थीं क्योंकि उनके मायके में पंडित को सभी पाहुन कहकर ही बुलाते थे। बदहवास पंडित वासुदेव जब कोठरी में घुसे तो संतोष 'पानी-पानी' चिल्ला रहा था। उसके सामने उल्टी फैली थी। पंडित वासुदेव ने पंडिताइन से कहा, ''अहाँ हटू!'' पंडिताइन के हटते ही पंडित वासुदेव ने अपने बलिष्ठ हाथों से संतोष को उठाकर चारपाई पर लिटा दिया।

''एक चम्मच पानी।'' पंडित ने चम्मच संतोष के मुँह में दे दिया और पूछा, ''कितनी उल्टी?''

पानी से गला भींगते ही संतोष कुछ सामान्य होने लगा। उसने इशारे से बतायाएक।

''चिंता मत करो। भोर है, डॉक्टर से दिखाकर दवा ले आएँगे।''

पंडिताइन हताश भाव से बोलीं, ''अहाँ केँ हाथ जोड़ै छी, हमरा सब केँ गाम पहुँचा दिअ!''

''गाँव में पानी नहीं है? सब रेलवे लाइन पर दिन काट रहे हैं।''

''हमहूँ रेलवे लाइन पर दिन काटब।''

''यहाँ सब पगला गया है।''

''पागल सही, जिनगी तँ बचत। अपन एकरा दवाइ आनि देबै, सड़क डूबि जयतै तखन?''

पंडित समझाने के लिए मुलायम पड़ गए, ''ईश्वर सहाय छथि, अहाँ...''

''कौइ काम नइँ देत? रातियो रेडियो में कहलकै जे गंगा के पानी खतरा के निसान से आर उपर बैढि़ जयतै। पहाड़ी घाट सँ सब लोग भागल। अहाँ माला फेरैत बैठल रहूँ।''

क्या हो गया है सबको? माँ, बाप, रिश्ता, सम्बन्ध पर से विश्वास हटे तो समझ में आता है कि लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं। पर ई टभकावाली, जो सब दिन बम भोला का दिया खाती रही है, उसे भी भगवान पर विश्वास उठ गया है। कहती है, कोई काम नहीं देगा, गंगा की बाढ़ सबको अपने में समो लेगी। शिवजी भी काम नहीं आएँगे? पहाड़ी बाबा काम नहीं आएँगे? कौन-सा युग चल रहा हैकलियुग! क्या यह अविश्वास और शंका का ही युग है।

पंडित वासुदेव को अपना बचपन याद आने लगापढऩे में निखट्टू थे। परीक्षा में फेल होने पर घर से भागे थेपहाड़ी बाबा की शरण में साधू बनने। कोई करतब, कोई चमत्कार नहीं दिखलाया उन्होंने। लेकिन शिव ने सब कुछ दे दिया। मंदिर के पुजारी बने, घर-गृहस्थी बस गई। पत्नी, बेटा, समाज में प्रतिष्ठा, कुछ भी तो लालसा बची नहीं रही। कोई और काम करते तो भी, पूजा तो करते ही। अब कोई काम नहीं करते हैं, सिर्फ पूजा करते हैं और उसी मंदिर के चढ़ावे से घर-परिवार चल जाता है। कैसे विश्वास करें कि भगवान भक्त के लिए कुछ भी नहीं करते। बाढ़ में मिट्टी कट रही है, विश्वास दरक जाएगा, क्या आस्था भी कटाव को नहीं झेल पाएगी?

''ठीक है, टभकावाली और संतोष रेलवे लाइन कैम्प जाना चाहते हैं, तो छोड़ आऊँगा। मैं भगवान को छोड़कर नहीं जाऊँगा।''

थोड़ी देर बकझक चलती रही। आखिर पूजा-पाठ सम्पन्न कर पंडित वासुदेव पंडिताइन, संतोष और बछिया को रेलवे लाइन कैम्प पर छोड़ आए थे।

रेलवे लाइन कैम्प! न वहाँ पटरी थी, न ट्रेन चलती थी और न वह कैम्प था। बीस वर्ष पहले वहाँ पटरी थी, और उस पर ट्रेन दौड़ती थीबरौनी जंक्शन से सिमरिया घाट तक। मोकामा जाने के लिए यात्री बरौनी जंक्शन से ट्रेन द्वारा सिमरिया घाट पहुँचते, स्टीमर से गंगा पार कर मोकामा जाते। बरौनी जंक्शन और सिमरिया घाट पर बड़ी गहमागहमी रहती। कुली और भोजनालय का धंधा खूब चलता। स्टीमर और रेल सेवा दियारे की तरह फैले इस इलाके के लिए सुहागिन के कर्णफूल थे। गंगा पर पुल बना, रेलवे लाइन बेकार। रेल वाले पटरी, स्लीपर सब उखाड़कर ले गए। तब से विधवा की सूनी माँग की तरह रेलवे लाइन की खाली ज़मीन पड़ी है जो मवेशियों के लिए चारागाह है, जहाँ बेर, बबूल और अकवन और बेहया के झाड़ हैं।

रेलवे लाइन पर बने बेतरतीब फटे तिरपाल, प्लास्टिक शीट, टूटे छप्पड़ों, फूस के मचानों की वजह से कैम्प के एक सिरे से दो किलोमीटर दूर दूसरे सिरे पर पहुँचना मुश्किल था। लोगों ने रास्ता कहाँ छोड़ा था? सब आसरे एक-दूसरे पर चढ़े थे। गाएँ, भैंस, बैल, कुत्ते, बकरियाँ और लोग सब वहीं समाए थे। पानी बरसता तो गोबर, गू-मूत, कीचड़, सब एकरस हो जाते और तब रेलवे लाइन की ढलान पर सिर्फ फिसलन होती। सारे बाढ़-पीडि़त फिसल रहे थेपानी, मिट्टी और हवा का सन्तुलन जो बिगड़ चला था।

पंडित वासुदेव जब दवा लेकर कैम्प लौटे तो संतोष के दोस्त रमेसर ने प्लास्टिक के बोरे को खोलकर तम्बू तान दिया था। चार खूँटा गाड़कर लकड़ी के दो तख्ते डालकर चारपाई बना दी गई थी। दवा खाने के बाद संतोष सँभलने लगा था। रमेसर साइकिल से पहाड़ीथान का दो चक्कर लगाकर पंडित वासुदेव का बचा घरेलू सामान उठा लाया था।

साँझ होने से पहले पंडित वासुदेव पहाड़ीथान पूजा-पाठ के लिए लौटना चाहते थे इसलिए अतिरिक्त सतर्कता से बोले, ''कल फिर आऊँगा। अब तो संतोष ठीक है।''

पंडिताइन कुछ नहीं बोलीं। गुस्से से भरी रहीं। क्या बोलतींकई बार तो कह चुकीं, लौटकर मंदिर मत जाओ, ई थोड़े मानेंगे। आखिर पंडित वासुदेव कमर में खोंसी धोती से रुपयों का एक बंडल निकालकर पंडिताइन के सामने रख आगे बढ़ गए थे।


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अगले दिन दोपहर ढलते-ढलते गंगा विकराल हो उठीं और पहाड़ीथान से एक किलोमीटर दूर गुप्ता बाँध तिनके ही तरह बह गया। साँप की तरह गढ़े, नालों को सरसराते पार करता पानी मनुष्य, जानवर, कीड़े सबको खदेड़ रहा था। पहले पहाड़ी घाट जल में समाया, फिर खेत, खेतों के बीच में बनी झोंपडिय़ाँ और फिर गाँव। गाँव में बचे-खुचे लोग रेलवे लाइन की तरफ भागे। जानवरों को ऊँची जगहों का पता नहीं था। फिर भी वे भागते रहेडरे, सहमे, भड़कते, चिंग्घाड़ मारते। आखिर जहाँ आदमी दिखा, वहीं जानवर टिक गए।

मंदिर की सीढिय़ों पर बैठे पंडित वासुदेव त्राहिमाम, त्राहिमाम करते रहे। उनके कानों में भागते लोगों, जानवरों की चीख और गगनभेदी हाँक देर तक भनभनाते रहे। साँझ होते-होते पहाड़ीथान और रेलवे लाइन के बीच चार किलोमीटर तक बाढ़ पसर गई थी। संतोष और पंडिताइन के सुरक्षित रेलवे लाइन पर पहुँच जाने से पंडित वासुदेव नि:शंक हो चले थे हालाँकि पहाड़ीथान का किनारा कटता चला जा रहा था। पानी मंदिर की सीढिय़ों से दस हाथ दूर रह गया था। सूर्य डूबने चला था। रोशनी कम होते ही अचानक सूनेपन का एहसास पंडित वासुदेव के भीतर तेज़ छुरे की तरह धँस गया था। वे गंगा के उभरे पेट पर डूबते सूर्य को निस्तेज़ होते देखते रहे। उनका पूरा शरीर गहरे नारंगी रंग में भींगा दिखाई दे रहा था। आखिर सूर्य अस्त हो गया तो वे बुदबुदाए, ''ईश्वर इच्छा।''

और वे पूजा-पाठ की तैयारी में लग गए।



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गाँव के पास रेलवे लाइन को रेलवे वालों ने काट दिया। काट दिया ताकि रेलवे कॉलोनी पर बढ़ते पानी का दबाव कम हो जाए। पूरा कैम्प फटे तिरपाल की तरह तेज़ आँधी में फडफ़ड़ाने लगा। कैसे जाएँगे कैम्प के लोग रेलवे कॉलोनी के बाज़ार, दवा-दारू, नमक-तेल, अन्न-जलावन के लिए?

रेलवे कॉलोनी के पास रेलवे लाइन टूटने का अन्देशा था। रेलवे लाइन टूटे इसके पहले ही कील गाँव के पास पुरानी रेलवे लाइन काट दी गई ताकि पानी का दबाव टूट जाए। वही हुआ जो रेलवे वालों ने सोचा थागड़हरा, मुशहरी, जयनगर, रूपनगर, बारो की ज़मीन को अपने में समोता बाढ़ का पानी निपनिया-बरौनी गाँव को पार करता तेघड़ा-बरौनी सड़क तक जा धमका। पुरानी रेलवे लाइन टापू बन गई थी।

रेलवे लाइन कैम्प पर हंगामा मचा था। ब्लॉक आफिस से बी.डी.ओ. सहित कई अधिकारियों को बाढ़-पीडि़तों ने घेर रखा था। बी.डी.ओ. लोगों को समझा रहा था।

''शांत हो जाइए। बारी-बारी से अपनी बात कहें। हम समस्या जानेंगे तो समाधान ढूँढ़ सकते हैं।''

''घंटा ढूँढ़ेंगे साले, पता नहीं है कि बाढ़ कितना दुख देती है। हर साल बरौनी ब्लॉक में बाढ़ आती है। ...रिलीफ नहीं बाँटेंगे, समस्या पूछेंगे।'' एक नौजवान भड़भड़ाया।

''ई गाली-गलौज से क्या होगा, चुप रहो।'' दूसरे ने डाँटा।

''हमें सबसे पहले दो चापाकल चाहिए। ई बाढ़ का पानी पी-पीकर सबको हैजा हो जाएगा।'' तीसरे ने कहा।

''उसमें तो टाइम लगेगा, तब तक पानी उबालकर पीजिए। हम हैजे का टीका लगवाने का इंतजाम कर देते हैं।'' बी.डी.ओ. ने अपने को संयत करते हुए कहा।

''पानी उबालकर पीएँ। अभी जलावन कहाँ से लाएँ?''

''माचिस कहाँ से आएगा?''

''किरासन तेल कहाँ है?''

अनेक आवाज़ों में एक तीखी आवाज़ उभरी, ''ई साला लोग रिलीफ में कमाएगा कि रिलीफ बाँटेगा? ई सबका एक्के इलाज हैलगाओ जूता।''

बी.डी.ओ. ने हाथ जोड़े, ''देखिए, आपका क्रोध मैं समझता हूँ। आप हमें ज़रूरत बता दें, हम भरसक इंतजाम करेंगे।''

बी.डी.ओ. ने कागज़-कलम सँभाल लिया, ''बोलिए रायजी।''

32 वर्ष की उम्र से 20 वर्ष अधिक दीखने वाले कामरेड रामबालक राय सोचने लगे। कोई धीरे बोलता है तो नौजवान कहेंगेई तो रामबालक दा स्टाइल में बोलता है।

''लिखिए...'' रामबालक राय ने अपने चिपचिपाए चेहरे को गमछे से पोंछा, ''कम-से-कम तीन नाव, छह चापाकल, दस्त-के-बुखार रोकने की दवा, नमक, चीनी, सत्तू, चिवड़ा, दियासलाई, कोयला, तिरपाल, मवेशी के लिए भूसा और तत्काल राहत के लिए दो हज़ार लोगों के लिए जितना रोटी-सत्तू भेज सकें, भेजें। नहीं तो लोग, खासकर ई बाल-बच्चे... कोई दो दिन से भूखा है, कोई चार दिन सेसब फडफ़ड़ाते-फडफ़ड़ाते मर जाएँगे।''

''खाली फाइल खोलने से नहीं होगा।'' रमेसर ने चेतावनी दी, ''रिलीफ जल्दी भेजिएगा, नहीं तो ब्लॉक चलाना मुश्किल होगा।''

संतोष ने बात में तह लगाई, ''ई मत भूलिएगा कि भुक्खड़ लोग जब बेलगाम होगा तो कोई उसे रोक नहीं पाएगा।''

बी.डी.ओ. सफाई देने लगा, ''पूरा प्रशासन तत्पर है, डी.एम., एम.पी., एम.एल.ए. साहब सब लगे हुए हैं। रिलीफ बाँटने के लिए नाव, मोटर-बोट, हेलिकॉप्टर सब आ रहा है। बेगूसराय हवाई अड्डा पर ही रिलीफ का हेड क्वार्टर बना दिया गया है... अच्छा हम लोग चलते हैं, दूसरे गाँव भी जाना है।''

बी.डी.ओ. अपने दल के साथ मोटर-बोट की तरफ बढ़ चले।

दो दिनों से कैम्प के ऊपर हेलिकॉप्टर उड़ते और लौट जाते। शायद बाढ़ का मुग्धकारी दृश्य देखकर। हेलिकॉप्टर की आवाज़ सुनते ही हज़ारों विश्वास से भरी आँखें आकाश में टँग जातीं। कैम्प का जीवन अजीब था। किसानों की खेती-बाड़ी का काम ठप्प था। जिनके मवेशी थे, वे तैरकर या नाव या मटके की घिरनई से गरहड़ा पहुँचते, वहाँ से ट्रेन पकड़कर दलसिंगसराय स्टेशन जाते जहाँ बाढ़ के न होने की वजह से मवेशियों के लिए चारा मिल जाता था। जिन्हें कोई काम नहीं था, वे सवेरे ही तास खेलने बैठ जाते थे। रिलीफ पैकेट नहीं गिरता तो वे विश्वास से भरी आँखें बल्ब की तरह झट से बुझ जाती थीं। तीसरे दिन जब हेलिकॉप्टर गुज़र रहा था तो मुरारी महतो से न रहा गया। खड़े होकर उसने झट से अपनी लुँगी ऊपर उठा दी।

''लो देखो सुपरघंट! साला घर्र-घर्र करता आता है, देखकर चला जाता है। अरे कितनी बार देखोगे कि हम कैसे डूबे हैं।''

मुरारी की हरकत से शांत रामबालक भी भड़क उठे, ''ए मुरारी, यहाँ सबकी माँ-बहन रहती हैं, ई सब बेहूदपनी नहीं चलेगी।''

''तो ले आओ न रिलीफ नेता जी। मुखिया-सरपंच तो पहले भाग गए। ऊ बी.डी.ओ. कहाँ है जो लिस्ट बनाकर ले गया था? जाओ बेगूसराय में खोजो।''

संतोष उखड़ गया, ''ए मुरारी, नंगई से रिलीफ मिलेगा? थोड़ा धैर्य-विश्वास रक्खो।''

''काहे का विश्वास, अयँ? किस पर विश्वास? रिलीफ नइँ मिलेगा तो नंगई करबे करेंगे।''

रामबालक ने उत्तेजित रमेसर को दबाकर बैठा दिया और संतोष को समझाने लगा, ''ए संतोष, उसका गुस्सा वाजिब है। चलो, अभी बेगूसराय चलते हैं।''

बेगूसराय रिलीफ सेन्टर में बड़ी भीड़ थी। कंधे-से-कंधे छिल रहे थे। सेना के दो हेलिकॉप्टर खड़े थे। राज्य सरकार का एक खिलौना-नुमा हवाई जहाज खड़ा था। हवाई अड्डे के तीन कमरों वाले दफ्तर के बरामदे पर मेज़ें और कुर्सियाँ लगी थीं। जि़ला अधिकारी खड़े थे। जि़ले के दो संसद सदस्यों और पाँच विधानसभा सदस्य कुर्सियों में धँसे बहस कर रहे थे। भीड़ में धक्कम-मुक्की करते तीनों जब जि़लाधिकारी के पास पहुँचे तो जि़लाधिकारी अनुनय-विनय की मुद्रा में बोल रहे थे, ''देखिए, रिलीफ पैकेट परसों से बने पड़े हैं। इन पैकेटों में रोटियाँ हैं, सत्तू नहीं। और देर हुई तो सड़ जाएँगी। अब इन लाखों पैकेटों के अंदर आपके नामों की पर्ची डालना संभव नहीं है।'' जि़लाधिकारी ने हाथ जोड़े, ''यह प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है, प्राण बचाने का मामला है! आप सब जन-प्रतिनिधि हैं...''

''हाँ, जन-प्रतिनिधि हैं।'' सांसद यमुना बाबू गरज पड़े, ''इसी से मेरे नाम की परची पैकेट में जानी चाहिए।''

विधायक भजनसिंह ने व्यंग्य-बाण छोड़ा, ''हम लोग का पशु-प्रतिनिधि हैं? आपको वोट चाहिए तो हमें भी वोट चाहिए। आपका नाम जाएगा तो हमारा नाम भी जाएगा।''

''आपका जाए न जाए, मुझे मतलब नहीं...'' जमुना बाबू ने बचाव करते हुए कहा, ''डी.एम. साहब, रिलीफ का पैसा हम लाए हैं, हमारा नाम जाएगा।''

''नहीं जाएगा तो?'' विधायक राजो पासवान ने व्यंग्य से पूछा।

''तो रिलीफ भी नहीं बँटेगा। और सुनो साले हरिजन! तेरी मज़ाल नहीं कि मेरा नाम जाने से रोक दो।''

हंगामा हो गया। दोनों पक्षों के समर्थक एक-दूसरे पर टूट पड़े।

जूतम पैजार देखकर रामबालक, रमेसर, संतोष सन्न रह गए। काफी देर बाद पुलिस भीड़ को नियंत्रित कर पाई। किसी तरह रामबालक रेलवे लाइन कैम्प का नाम, जनसंख्या वगैरह लिखा पाया। तीनों बुरी तरह थक गए थे। बस यही संतोष की बात थी कि रामबालक के साथ बी.डी.ओ. से चार नाव मिलने की पर्ची, हैजे का थोड़ा-सा टीका और दूसरी दवाओं के बंडल थे।

''कहाँ से शुरू करेंगे रिलीफ बाँटना?'' बाँध पर पहुँचकर संतोष ने कामरेड से पूछा।

''उचका टोला से। वे लोग अब भी घर-सम्पत्ति बचाने की लालच में फँसे हैं।'' कामरेड ने सहज ही कहा।
''काहे? उ अमीर लोग खून चुसवा जोंक हैं। मरने दीजिए उनको।''

''अरे इस विपदा में सब बराबर हैंक्या अमीर, क्या गरीब? बाढ़ में गढ़ा भी डूबा, टोला भी। अभी तो सब बराबर। पानी घटे तो ऊँच-नीच सब दिखेगा। तब हम फिर उनसे भिड़ेंगे।'' कामरेड की आवाज़ में वही सहजता थी।

''हमें अच्छा नहीं लगता आपका ऐसा सोचना। उन ससुरों के साथ, दया-माया काहे?'' तुनककर संतोष बोला।

''देखो, अभी वह भी मनुष्य, हम भी मनुष्य। लड़ाई तो विपदा से है अभी। आपसी झगड़ा बाद में सुलटेंगे।''

''करते रहिए सोच-विचार! हम चलते हैं घर।'' तिड़तिड़ाता संतोष आगे बढ़ गया।



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संतोष अपने तम्बू में लौटा तो पंडिताइन ने सीधे तोप दागना शुरू कर दिया, ''नेतागिरी कएल भ' गेल। दोसरक चूल्हा पर रोटी सेंक क' माइ देबे करत, बाप जीवित अइ कि नइँ ओकर कोनो फिकिर अइ?''
संतोष अकबका गयाकोयला, किरासिन तेल सबका इंतज़ाम तो था ही, हाँ, बाबू को देखने नहीं जा सका। जाने का साधन भी नहीं था। आज तो नाव मिली है।

पंडिताइन की रुलाई फूट पड़ी, ''ऊ समुद्र जेहन पानि के बीच मंदिर में। चार दिन से कोनो खबर नइँ। केकरो फिकिर (फिक्र) नइँ छै।''

संतोष तसल्ली देने आगे बढ़ा तो पंडिताइन और छाती कूटने लगीं, ''देखबै ओ भोलानाथ, ऊ अहाँक बसहा बैल (शिव बैल) छथि! भोला अहीं सहाय रहब।''

संतोष ने हिम्मत जुटाकर कहा, ''कैसे देखने जाता माइ? एक कोस तैरना क्या खेल है? आज नाव मिली है, जाकर ले आता हूँ पाहुन (पिता) को। उनको कुछ नहीं हुआ होगा। अभी स्टेशन पर अमरपुर का अभय कम्पाउंडर मिला था जो बोला कि सिर्फ पहाड़ी थान का मंदिर बचा है।''

रमेसर के चप्पू के ज़ोर से डोंगी बढ़ी चली जा रही थी। छोटी-सी डोंगी में कामरेड रामबालक, अभय और संतोष बैठे थे। टीके के एम्पुल, थालाजोल, एवोमिन, क्लोरोस्ट्रेप कैपसूल, स्पिरिट, ग्लुकोज, दियासलाई, सत्तू के पैकेट सब डोंगी में भरे थे।

''पानी और बालू का रास्ता काटे नहीं कटता है भाई। ओ रहा मंदिर... सुनो पंडितजी के नचारी गाने की आवाज़ आ रही है।'' रामबालक की बात सुनते ही सब चौकन्ने हो गए।

दूर से पंडित जी की टेर धीरे-धीरे साफ सुनाई देने लगी थी

ओऽऽ शिवशंकर त्रिपुरारी
कौन विधि, हम निहमब हो,
विपत पड़ल सिर भारी
ओऽ शिवशंकर त्रिपुरारी
जँ एहि बेर भोला पार लगाइब,
आयब फेर अगारी
                ओऽ शिवशंकर त्रिपुरारी
भक्त अहाँक सुनू पुकारि रहल अछि,
राखब लाज विचारी
ओऽ शिवशंकर त्रिपुरारी
जाबत धैर्य धरब अपने पर ताबत
ठाढि़ दुआरी ओ ऽ ओ ऽ...

नाव के मंदिर के पास पहुँचते ही संतोष ने ज़ोर से आवाज़ दी, ''पाहुन! पाहुन।''

''कौन?'' की आवाज़ के साथ ही पंडित वासुदेव मंदिर के बाहर निकल आए। बदन से धोती बाँधे, हाथ में सुमरनी, भव्य अधपकी दाढ़ी। संतोष को नाव से उतरने की कोशिश करते देख पंडित जी चिल्लाए, ''नाव से मत उतरो बेटा, दीवार टूट गई है।''

''पाहुन, आप अभी चलिए, माइ दिन-रात रोती रहती है।''

''काहे रोती है, मैं यहाँ ठीक हूँ बेटा! बम भोला सबकी रच्छा करते हैं, हमारी नहीं करेंगे?''

''नहीं पाहुन, आप चलिए...'' संतोष ने प्रतिवाद किया, ''कहीं तबीयत खराब हो गई तो कौन देखेगा यहाँ?''

''संतोष ठीक कह रहा है पंडिज्जी,'' रामबालक ने ज़ोर देकर कहा, ''आप हमारे साथ चलिए। हम लोग भी रिलीफ बाँटने में फँसे हैं।''

''नहीं बेटा, यहाँ बम भोला की सेवा कौन करेगा? जब तक बाढ़ है, दो-चार दिन में खोज-खबर ले लिया करना।''

अभय कम्पाउंडर कुछ सोचते हुए बोला, ''आप हैजे का टीका तो लगवा लीजिए।''

पंडित वासुदेव ने आत्म-विश्वास से भरी हँसी बिखेरी, ''मेरा टीका तो बम भोला है बेटा! वही रच्छा करेंगे।''

संतोष गिड़गिड़ाने लगा, ''आप चलिए पाहुन, नहीं तो माइ मुझ पर बिगड़ेगी। आपका सत्तू खत्म हो जाएगा, ये पानी गंदा है...''

जैसे कुछ ध्यान आ गया हो, पंडित वासुदेव मुस्कुराए, ''सुनो संतोष, कल जब फिर रिलीफ बाँटने निकलो तो मेरे लिए धूप, अगरबत्ती, सलाई, नमक और सत्तू लेते आना।''

संतोष झट माइ की दी हुई पोटली उठाकर, पोटली उछालने से पहले बोला, ''लपकिए पाहुन, ई पोटली में सब कुछ है। और कोई तकलीफ है तो बोलिए।''

पंडित वासुदेव ने पोटली सँभालते हुए कहा, ''नहीं रे, बस मंदिर में बहुत नागदेवता जमा हो गए हैं। सो बच-बचाके रहना पड़ता है, पता नहीं कब क्रोधित हो जाएँ।''

डोंगी पर बैठे सब को जैसे साँप सूँघ गया।

कुछ क्षणों बाद अभय कम्पाउंडर ने क्षमता माँगते हुए कहा, ''पंडिज्जी, छोटा मुँह बड़ी बात। ई साँप-बिच्छू का कोई भरोसा है? इसका तो सुभाव काटने का है, काटबे करेगा। चलिए, नाव पर बैठिए।''

''हाँ, पंडिज्जी।'' कामरेड रामबालक ने ज़ोर देकर कहा, ''शिवजी की पूजा गंगा माइ और नाग देवता कर लेंगे। अब तो आपको चलना ही पड़ेगा।''

''मुझे कुछ नहीं होगा रामबालक!'', पंडित वासुदेव का आत्म-विश्वास सहज हो चला था, ''संसार में सारे जीव रहते हैं। मैं भी भक्त, नाग देवता भी शिव-भक्त। भक्त एक-दूसरे को नहीं काटते-मारते...'' पीछे पलटते हुए पंडित वासुदेव ने कहा, ''संतोष, माइ को धीरज देना। तेरी माइ का धीरज जल्दी खतम हो जाता है।''

रमेसर ने बाँस तिरछा करके ज़मीन में अड़ाया और ज़ोर लगाकर बाँस को दबा दिया। डोंगी गहरे पानी की तरफ पीछे हटी। रामबालक दूसरे मुहाने पर से चप्पू चलाने लगा। डोंगी सीधी सिमरिया हाईस्कूल की तरफ बढऩे लगी, जहाँ कुछ बाढ़-पीडि़तों ने शरण ले रखी थी। संतोष पीछे मुड़कर मंदिर को देखता रहा। पंडित वासुदेव मंदिर के दरवाज़े से घुसे और मंदिर के गह्वïर जैसे अंधेरे में गुम हो गए।

मंदिर से काफी दूर निकल आने पर भी संतोष की उदासी बरकरार थी। चप्पू चलाते हुए रामबालक ने कहा, ''संतोष, उदास क्यों हो, बूढ़े जल्दी नहीं बदलते। गंगा धार्मिक श्रद्धालुओं के लिए माँ है। हम, तुम उसके बाढ़ की कोड़े की मार साल-भर सहलाते रहते हैं। काहे की माँ है यह गंगा, जिसकी कोख में बालू भरता जा रहा है। थोड़ा-सा पानी यह सह नहीं पाती, उलीच देती है। नदी माँ होती है, तब जब वह तुम्हें सींचे। यह सींचे भी कैसे, न बाँध हमने बनाए, न इसकी कोख के बालू को साफ किया। बस गंगा माइ-गंगा माइ का जाप करने से मरने के बाद ही स्वर्ग मिलेगा। जब तक जीओगे, गंगा तुम्हारा जीवन नर्क बना देगी। पंडिज्जी का अटल विश्वास है, तुम नहीं हिला सकोगे। प्रकृति, परिस्थिति, या विज्ञान ही ऐसी अंधी आस्थाओं को हिला सकते हैं। गंगा को लेकर शानदार नाटक हो रहा है। यहाँ हम लोग कटाव से घिरे हैं। सब कुछ तो कटता चला जा रहा है। पता नहीं कब तक कटाव चलता रहेगा...''

संतोष ने धीमे से कहा, ''यह सब ठीक है कामरेड, पर माइ...''

''मैं उन्हें समझा दूँगा।''

हल्की बारिश शुरू हो गई थी। जल्दी-जल्दी चप्पू चलाए जाने लगे।


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अभाव, लगातार वर्षा और सरकारी बेरुखी के अजगर ने कैम्प को लपेटकर तानना शुरू कर दिया था। जो भी मामूली-सा रिलीफ मिलता उसे अपने-अपने क्षेत्रों में बँटवाने के लिए विधायकों, सांसदों में छीना-झपटी मची थी। कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ मदद के लिए आ गई थीं। व्यापार मंडल, बाज़ार समिति, हिरदयराम गोशाला, रोटरी और लायंस क्लब वगैरह थोड़ा-बहुत मदद कर रहे थे। रामबालक, रमेसर, संतोष वगैरह राहत सामग्री जुटाकर बाँटने के काम में जुटे थे ताकि लोग हिम्मत न हारें। फिर भी हैजे ने महामारी का रूप ले लिया था।

असामयिक रुदन पे्रत की तरह मँडराता रहता। कब कौन मरेगा, कोई नहीं जानता था कि मृत्यु किसके दरवाज़े पर दस्तक दे देगी।

सवेरे से संतोष निकल गया था। बाज़ार समिति वालों के पास रिलीफ की सामग्री लेने गया था। बाज़ार समिति का अध्यक्ष, लगता था, कई फुटबॉलों से बना था। उस विशाल काया से ऐसी विनम्र सुरीली आवाज़ निकलती थी कि वह आदमी फिल्मी लगने लगता था। बाज़ार में सारी जिंसों के भाव आसमान छू रहे थे। सामान्य दिनों में भूसा टोकरे की माप से बिकता था, अचानक तौल कर बेचा जाने लगा था—16 रुपए का चालीस किलो। किरासन तेल सरसों के तेल की तरह, सरसों तेल घी की तरह बिकने लगता था। बाज़ार समिति ने चार बोरे चिवड़ा, एक कार्टन दियासलाई रेलवे लाइन कैम्प के लिए दिया था। लोग चढ़ते भावों को लेकर प्रतिरोध को सोच भी नहीं सकते थे, किसी तरह जि़ंदा रहना ही बड़ी बात थी। गुस्सा कभी-कभी बदली के बीच से छिटक पड़ता थाजब कोई सरकारी आदमी नज़र आ जाता था।

संतोष सामान डोंगी से उतरवाकर कामरेड रामबालक के हवाले कर कहने लगा, ''कामरेड, बहुत भूख लगी है, कुछ खाकर आता हूँ, तब तक कैम्प में रिलीफ बाँटने की खबर कर दीजिए।''

''हाँ-हाँ जाओ, सवेरे से भूखे हो।''

संतोष, रमेसर के साथ अपनी छोलदारी की ओर चल पड़ा। छोलदारी के बाहर से उसने आवाज़ दी, ''माइ, कुछ खाना दे दो।''

कोई आवाज़ नहीं आई तो वह अंदर घुसा। पंडिताइन का भारी शरीर पसीने से लथपथ था। गोरा चेहरा उखड़े लाल रंग का हो गया था। पंडिताइन लेटी-लेटी घिसटकर दरवाज़े की ओर बढऩे की कोशिश कर रही थीं। पूरी छोलदारी में दस्त, उल्टी की बदबू फैली थी। संतोष सन्न रह गया, बहुत मुश्किल से उसके मुँह से आवाज़ निकली

''माइ! ई की भेल।''

''सवेरे से... तुम गया... तभी से... बहुत... बार उल्टी... दस्त!''

वह रमेसर की ओर मुड़ा, ''रमेसर, तुम जल्दी से अभय कम्पाउंडर और कामरेड को लेकर आओ! मैं माइ को देखता हूँ।''

उसने नमक और चीनी मिलाकर शर्बत बनाया और पंडिताइन को चम्मच से पिलाने लगा। गला तर होने के बाद पंडिताइन ने धीमे से कहा, ''बेटा, ई गंदगी...''

संतोष तुरंत बाहर आ गया, तेज़ी से जाकर रामसाह की विधवा बहन गंगिया को बुला लाया। दोनों ने मिलकर छोलदारी की सफाई की। पंडिताइन के कपड़े बदलवाकर चारपाई पर लिटा दिया। माइ के पास बैठे संतोष के भीतर आशंका की आँधी चल रही थीमाइ बचेगी कि नहीं? कैम्प में अठारह लोग हैजे से मर चुके थे। हैजे का टीका भी तो पूरा नहीं मिला था कि सब को टीका लगाया जा सकता। पंडिताइन ने फिर उल्टी की। गंगिया सफाई करने लगी थी। तभी बाहर से कामरेड रामबालक की आवाज़ आई। साथ में अभय कम्पाउंडर भी था। अभय ने झटपट उल्टी रोकने की सूई पंडिताइन को लगा दी।

''अभी इससे इनको थोड़ी नींद भी आ जाएगी और उल्टी भी रुक जाएगी। पर हालत ठीक नहीं है, ग्लुकोज का पानी चढ़ाना होगा।''

''नहीं।'' पंडिताइन ने झटके से कहा, ''संतोष, तुम पंडिज्जी को बुला दो, बस...''

रामबालक ने संतोष को बाहर निकलने का इशारा किया। बाहर आते ही उसने कहा, ''देखो, तुम और रमेसर डोंगी लेकर पंडिज्जी को लेने चले जाओ। मैं पानी चढ़ाने का सामान, दवा लाने किसी को भेजता हूँ। डॉक्टर तो आएगा नहीं, सब डॉक्टरों के यहाँ बड़ी भीड़ है। सरकारी अस्पताल जाकर रोगी जल्दी मर सकता है, बच नहीं सकता। अभय यहीं रहेगा। बस, सब काम जल्दी करो।''

रमेसर और संतोष भागे डोंगी के पास। तीन डोंगियाँ बँधी थीं। एक डोंगी में दोनों सवार होकर जल्दी-जल्दी बाँस और चप्पू से डोंगी खेने लगे।

संतोष की घबराहट बहुत बढ़ गई थी। ऐसे भी तेज़ी से चप्पू चलाने से वह हाँफ रहा था। अगर उत्तर या दक्षिण नाव को ले जाना हो और तेज़ पुरवाई चल रही हो तो नाव को सँभालना मुश्किल होता है। उमस से चिपचिपा आए पसीने ने उसकी हालत और खराब कर रखी थी। उसकी इस हालत को देखकर रमेसर ने टोका, ''ए संतोष, पहुँचने में ही इतनी ताकत मत लगा दो कि लौटने की ताकत ही न बचे। अब तो मंदिर आने वाला है। धीमे चलो या फिर तुम चप्पू चलाना छोड़ दो। मैं धीरे-धीरे डोंगी खे ले जाऊँगा।''

डोंगी जैसे ही मंदिर के पास पहुँची, संतोष की बेसब्री बढ़ गई। डोंगी मंदिर से करीब पचास गज दूर थी तभी वह ज़ोर-ज़ोर से पंडिजी को आवाज़ देने लगा

''पाहुनपाऽऽ हु न, पाऽऽऽ हुन!'' संतोष की तेज़ सुरीली आवाज़ उस वीरान जल प्रान्तर में दूर-दूर तक जा रही थी। मंदिर के अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई तो संतोष के माथे पर आशंका और बदहवासी से और पसीना उभर आया। रमेसर का चप्पू तेज़ हो गया। लेकिन बीच पानी में मंदिर होने से लहरें जो गुलगेंट बना रही थीं, इसके कारण डोंगी को मंदिर के पास ले जाने में कठिनाई हो रही थी। संतोष का धैर्य चुकने लगा था।

''पाहुन! बोलिए न पाहुन! माइ को हैजा हो गया है।''

मंदिर से कोई जवाब नहीं आया। तो वह भरे गले से रमेसर से सिर्फ इतना बोल पाया, ''रमेसर, पाहुन नहीं...''

और संतोष की रुलाई फूट पड़ी। कैम्प की अनेक मौतों में संतोष सबसे पहले लाश जलाने में शामिल हो जाता था और धैर्य बनाए रखता था।

डोंगी जैसे ही मंदिर के अहाते की टूटी दीवार से सटी संतोष छपाक से पानी में कूद गया और मंदिर के दरवाज़े के पास तेज़ी से पहुँचा और वहीं पत्थर की तरह, पेड़ की तरह जड़ हो गया।

मंदिर के अंदर पंडित वासुदेव की लाश पड़ी थी। लाश से ऐसी तेज़ बदबू निकल रही थी कि वहाँ खड़ा होना भी मुश्किल था। पंडित वासुदेव का गोरा-चिट्टा बदन नीला पड़ गया था।

संतोष की हालत देख, रमेसर ने डोंगी से छोटा लंगर उठाकर मंदिर की टूटी दीवार पर फेंका। लंगर के अड़ते ही रमेसर कूदकर मंदिर के दरवाज़े पर आ गया। रमेसर ने पंडित वासुदेव का पंजा पकड़कर हिलाने की कोशिश की, तब भी लाश कैसे हरकत करती?

''चलो, इनको बाहर निकालें।'' रमेसर ने कहा और धम्म से मंदिर के अंदर। जैसे ही उसने पंडित वासुदेव की गर्दन के नीचे हाथ लगाया कि सामने नज़र पड़ी और वह ज़ोर से चिल्लायासाँप।

तीन साँप फन ताने पड़े थे। रमेसर एक ही छलाँग में बाहर आ गया।

''पंडिजी को साँप ने ही काटा है। देखते हो, पूरा शरीर जहर से नीला हो गया है।'' कहता वह चप्पू लाने बढ़ गया।

रमेसर ने चप्पू संतोष को थमाया और बोला, ''मैं इनकी लाश को पाँव की तरफ से पकड़कर पीछे खींचता हूँ, अगर कोई साँप आगे बढ़े तो चप्पू से उसके फन पर ही चोट करना!''

पंडित वासुदेव की भारी लाश को रमेसर टाँग पकड़कर पीछे घसीटने लगा। तभी एक साँप आगे सरसराया। रमेसर के बगल में खड़े चौकस संतोष ने हवा में लहराता चप्पू साँप के फन पर दे मारा। कुचला साँप तेज़ी से आगे बढ़ा तो उसने साँप के शरीर को चप्पू से कसकर चाँप दिया। रीढ़ के टूटते ही साँप रुक गया। धम्म से संतोष ने उसके फन पर दुबारा वार किया, फिर कसकर चप्पू दबाने लगा ताकि फन पूरी तरह कुचल जाए। बाकी दोनों साँपों को बिलबिलाते देख रमेसर चिल्लाया, ''देखना, वे दोनों भी फन काढ़ चुके हैं।'' और दौड़कर वह दूसरा चप्पू नाव से उठा लाया। दोनों साँपों को निकलते देख, सन्तोष ने फिर प्रहार किया। एक साँप के तो मुँह पर चप्पू लगा, वह पूँछ पटकने लगा। रमेसर जब तक जगह बनाकर तीसरे साँप पर वार करता, वह तेज़ी से सरसराता पानी में उतर गया। दूसरे साँप के मारने के बाद रमेसर ने गौर से मंदिर के अंदर झाँकाशायद कोई और साँप हो। पर और कोई नहीं था। दोनों ने मिलकर किसी तरह पंडित वासुदेव की दुर्गंध देती लाश को डोंगी में लादा और चप्पू चलाने लगे। बार-बार साँसों को कसते ताकि कम-से-कम दुर्गंध सहना पड़े।

रेलवे लाइन कैम्प के अस्थाई घाट पर डोंगी के लगते ही शोर मच गयापंडिज्जी मर गए, साँप ने काटा। पता नहीं कब मरे। साथियों से घिरे कामरेड रामबालक ने लपककर संतोष को सँभाला, सांत्वना की थपकी देते हुए कहा, ''संतोष धीरज रखना। चाची की हालत में सुधार है। ...रमेसर, तुम लोग लाश उठाकर लेते आओ''

संतोष की आँखें वीराने में कुछ खोजती रहीं, जैसे उसने रामबालक की बात ही नहीं सुनी हो। चप्पू चलाते-चलाते शरीर इतना थक गया था जैसे वह नशे में हो। और उसे सारी चीज़ें घूमती नज़र आ रही थीं।

कामरेड रामबालक के सहारे चलता संतोष और उसके पीछे लाश उठाए लोग जब छोलदारी पहुँचे तो करुणा से भीगी आँखें सितारों भरी रात की तरह छोलदारी पर झुक आई थीं। संतोष छोलदारी के बाहर ही बैठ गया। रोने-धोने की तेज़ आवाज़ सुनकर पंडिताइन ने पूछा, ''गंगिया, ई रोना-धोना?''

''चाची, पंडिजी...'' गंगिया की बातें रुदन में डूब गई।

घिसटती पंडिताइन छोलदारी के मुँह पर आईं और लाश देखते ही फुक्का मारकर रो पड़ीं, ''रे संतोषवा, ई की भेल रे...।''

रामबालक के हाथ के इशारे से यंत्रवत संतोष आगे बढ़ामाँ को तसल्ली देने के लिए। पंडिताइन ने संतोष का बढ़ा हाथ झटक दिया, ''ला, हमर पाहुन केँ ला, पा... हुन!''

अवाक् संतोष धम्म से ज़मीन पर बैठ गया और दोनों हथेलियों से अपनी छाती को दबाने लगाऑ... ऑ...

उसे तेज़ उल्टियाँ आ रही थीं जैसे लाश की दुर्गंध उसके पोर-पोर में बस गई हो।

धीरे-धीरे पंडिताइन की चीत्कार की जगह, शांत आँसू की बूँदें रह गईं जैसे चीत्कार उस जल-प्रान्तर में गुम हो गई हो।

(1989 में लिखित व प्रकाशित)